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Sunderkand Meaning शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निनर्वाा�णशान्तिन्तप्रदं

ब्रह्माशमु्भफणीन्द्रसेव्यमनिनशं र्वाेदान्तर्वाेद्यं निर्वाभुम्‌। रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरंु मायामनुष्यं हरिरं र्वान्देऽहं करुणाकरं रघुर्वारं भूपालचूडामणिणम्‌॥1॥

भावार्थ�:-शान्त, सनातन, अप्रमेय ( प्रमाणों से परे), निनष्पाप, मोक्षरूप परमशान्तिन्त देने र्वााले, ब्रह्मा, शमु्भ और शेषजी से निनरंतर सेनिर्वात, र्वाेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वा�व्यापक,

देर्वाताओं में सबसे बडे़, माया से मनुष्य रूप में दिदखने र्वााले, समस्त पापों को हरने र्वााले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिशरोमणिण राम कहलाने र्वााले जगदीश्वर की

मैं र्वांदना करता हँू॥1॥ नान्या सृ्पहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

सत्यं र्वादामिम च भर्वाानखिखलान्तरात्मा। भक्तिSं प्रयच्छ रघुपुंगर्वा निनभ�रां मे

कामादिददोषरनिहतं कुरु मानसं च॥2॥भावार्थ�:- हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हँू और निफर आप सबके अंतरात्मा ही हैं ( सब जानते

ही हैं) निक मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निनभ�रा (पूण�) भशिS दीजिजए और मेरे मन को काम आदिद दोषों से रनिहत कीजिजए॥2॥

अतुशिलतबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजर्वानकृशानंु ज्ञानिननामग्रगण्यम्‌। सकलगुणनिनधानं र्वाानराणामधीशं रघुपनितनिप्रयभSं र्वाातजातं नमामिम॥3॥

भावार्थ�:- अतुल बल के धाम, सोने के पर्वा�त (सुमेरु) के समान कान्तिन्तयुS शरीर र्वााले, दैत्य रूपी र्वान ( को ध्र्वांस करने) के शिलए अखिग्न रूप, ज्ञानिनयों में अग्रगण्य, संपूण� गुणों के निनधान, र्वाानरों के स्र्वाामी, श्री रघुनाथजी के निप्रय भS पर्वानपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता

हँू॥3॥ चौपाई : जामर्वांत के बचन सुहाए। सुनिन हनुमंत हृदय अनित भाए॥

तब लनिग मोनिह परिरखेहु तुम्ह भाई। सनिह दुख कंद मूल फल खाई॥1 ॥भावार्थ�:- जाम्बर्वाान्‌के संुदर र्वाचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। ( र्वाे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल- फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥

जब लनिग आर्वाौं सीतनिह देखी। होइनिह काजु मोनिह हरष निबसेषी॥ यह कनिह नाइ सबखिन्ह कहँु माथा । चलेउ हरनिष निहयँ धरिर रघुनाथा॥2॥

भावार्थ�:- जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अर्वाश्य होगा, क्योंनिक मुझे बहुत ही हष� हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नर्वााकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी

को धारण करके हनुमान्‌जी हर्षिषंत होकर चले॥2॥

क्तिसंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदिद चढे़उ ता ऊपर॥बार- बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पर्वानतनय बल भारी॥3॥भावार्थ�:- समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वा�त था। हनुमान्‌जी खेल से ही ( अनायास ही) कूदकर

उसके ऊपर जा चढे़ और बार- बार श्री रघुर्वाीर का स्मरण करके अत्यंत बलर्वाान्‌हनुमान्‌जी उस पर से बडे़ र्वाेग से उछले॥3॥

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जेहिहं निगरिर चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥ जिजमिम अमोघ रघुपनित कर बाना। एही भाँनित चलेउ हनुमाना॥4॥

भावार्थ�:- जिजस पर्वा�त पर हनुमान्‌जी पैर रखकर चले ( जिजस पर से रे्वा उछले), र्वाह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्‌जी

चले॥4॥ जलनिनमिध रघुपनित दूत निबचारी। तैं मैनाक होनिह श्रम हारी॥5॥

भावार्थ�:- समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वा�त से कहा निक हे मैनाक! तू इनकी थकार्वाट दूर करने र्वााला हो ( अथा�त्‌अपने ऊपर इन्हें निर्वाश्राम दे)॥5॥

दोहा :* हनूमान तेनिह परसा कर पुनिन कीन्ह प्रनाम।

राम काजु कीन्हें निबनु मोनिह कहाँ निबश्राम॥1॥भावार्थ�:- हनुमान्‌जी ने उसे हाथ से छू दिदया, निफर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी

का काम निकए निबना मुझे निर्वाश्राम कहाँ?॥1॥ चौपाई :

* जात पर्वानसुत देर्वान्ह देखा। जानैं कहँु बल बुजिt निबसेषा॥ सुरसा नाम अनिहन्ह कै माता। पठइखिन्ह आइ कही तेहिहं बाता॥1॥

भावार्थ�:- देर्वाताओं ने पर्वानपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी निर्वाशेष बल- बुजिt को जानने के शिलए (परीक्षाथ�) उन्होंने सुरसा नामक सपv की माता को भेजा, उसने आकर

हनुमान्‌जी से यह बात कही-॥1॥ आजु सुरन्ह मोनिह दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पर्वानकुमारा॥

राम काजु करिर निफरिर मैं आर्वाौं। सीता कइ सुमिध प्रभुनिह सुनार्वाौं॥2॥भावार्थ�:- आज देर्वाताओं ने मुझे भोजन दिदया है। यह र्वाचन सुनकर पर्वानकुमार हनुमान्‌जी नेकहा- श्री रामजी का काय� करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दँू,॥2॥

तब तर्वा बदन पैदिठहउँ आई। सत्य कहउँ मोनिह जान दे माई॥ कर्वानेहँु जतन देइ नहिहं जाना। ग्रसशिस न मोनिह कहेउ हनुमाना॥3॥

भावार्थ�:- तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा ( तुम मुझे खा लेना) । हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब निकसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिदया, तब हनुमान्‌जी

ने कहा- तो निफर मुझे खा न ले॥3॥ जोजन भरिर तेहिहं बदनु पसारा। कनिप तनु कीन्ह दुगुन निबस्तारा ॥

सोरह जोजन मुख तेहिहं ठयऊ। तुरत पर्वानसुत बणिwस भयऊ॥4॥भावार्थ�:- उसने योजनभर ( चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्‌जी ने अपने शरीर को

उससे दूना बढ़ा शिलया। उसने सोलह योजन का मुख निकया। हनुमान्‌जी तुरंत ही बwीस योजन के हो गए॥4॥

जस जस सुरसा बदनु बढ़ार्वाा। तासु दून कनिप रूप देखार्वाा॥ सत जोजन तेहिहं आनन कीन्हा। अनित लघु रूप पर्वानसुत लीन्हा॥5॥

भावार्थ�:-जैसे- जैसे सुरसा मुख का निर्वास्तार बढ़ाती थी, हनुमान्‌जी उसका दूना रूप दिदखलाते थे। उसने सौ योजन ( चार सौ कोस का) मुख निकया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप

धारण कर शिलया॥5॥ बदन पइदिठ पुनिन बाहेर आर्वाा। मागा निबदा तानिह शिसरु नार्वाा॥ मोनिह सुरन्ह जेनिह लानिग पठार्वाा। बुमिध बल मरमु तोर मैं पार्वाा॥6॥

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भावार्थ�:- और उसके मुख में घुसकर (तुरंत) निफर बाहर निनकल आए और उसे शिसर नर्वााकर निर्वादा माँगने लगे। ( उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुजिt- बल का भेद पा शिलया, जिजसके शिलए

देर्वाताओं ने मुझे भेजा था॥6॥ दोहा :

* राम काजु सबु करिरहहु तुम्ह बल बुजिt निनधान। आशिसष देइ गई सो हरनिष चलेउ हनुमान॥2॥

भावार्थ�:- तुम श्री रामचंद्रजी का सब काय� करोगे, क्योंनिक तुम बल- बुजिt के भंडार हो। यह आशीर्वाा�द देकर र्वाह चली गई, तब हनुमान्‌जी हर्षिषंत होकर चले॥2॥

चौपाई :* निनशिसचरिर एक क्तिसंधु महुँ रहई। करिर माया नभु के खग गहई॥

जीर्वा जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल निबलोनिक नितन्ह कै परिरछाहीं॥1॥भावार्थ�:- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। र्वाह माया करके आकाश में उड़ते हुए पणिक्षयों को

पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीर्वा- जंतु उड़ा करते थे, र्वाह जल में उनकी परछाईं देखकर॥1॥

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एनिह निबमिध सदा गगनचर खाई॥ सोइ छल हनूमान्‌कहँ कीन्हा। तासु कपटु कनिप तुरतहिहं चीन्हा॥2॥

भावार्थ�:- उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिजससे र्वाे उड़ नहीं सकते थे ( और जल में निगर पड़ते थे) इस प्रकार र्वाह सदा आकाश में उड़ने र्वााले जीर्वाों को खाया करती थी। उसने र्वाही

छल हनुमान्‌जी से भी निकया। हनुमान्‌जी ने तुरंत ही उसका कपट पहचान शिलया॥2॥ तानिह मारिर मारुतसुत बीरा। बारिरमिध पार गयउ मनितधीरा॥ तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥3॥

भावार्थ�:- पर्वानपुत्र धीरबुजिt र्वाीर श्री हनुमान्‌जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। र्वाहाँ जाकर उन्होंने र्वान की शोभा देखी। मधु ( पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गंुजार कर रहे थे॥3॥

नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखिख मन भाए॥ सैल निबसाल देखिख एक आगें। ता पर धाइ चढे़उ भय त्यागें॥4॥

भावार्थ�:- अनेकों प्रकार के र्वाृक्ष फल- फूल से शोणिभत हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो र्वाे मन में ( बहुत ही) प्रसन्न हुए। सामने एक निर्वाशाल पर्वा�त देखकर हनुमान्‌जी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढे़॥4॥

उमा न कछु कनिप कै अमिधकाई। प्रभु प्रताप जो कालनिह खाई॥ निगरिर पर चदिढ़ लंका तेहिहं देखी। कनिह न जाइ अनित दुग� निबसेषी॥5॥

भावार्थ�:-( शिशर्वाजी कहते हैं-) हे उमा! इसमें र्वाानर हनुमान्‌की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वा�त पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा निकला है, कुछ कहा नहीं जाता॥5॥ अनित उतंग जलनिनमिध चहँु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥

भावार्थ�:- र्वाह अत्यंत ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहारदीर्वाारी) का परम प्रकाश हो रहा है॥6॥ छंद :

* कनक कोदिट निबशिचत्र मनिन कृत संुदरायतना घना। चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु निबमिध बना॥ 

गज बाजिज खच्चर निनकर पदचर रथ बरूथखिन्ह को गनै। बहुरूप निनशिसचर जूथ अनितबल सेन बरनत नहिहं बनै॥1॥

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भावार्थ�:- निर्वाशिचत्र मणिणयों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से संुदर- संुदर घर हैं। चौराहे, बाजार, संुदर माग� और गशिलयाँ हैं, संुदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है।

हाथी, घोडे़, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन निगन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलर्वाती सेना र्वाण�न करते नहीं बनती॥1॥

बन बाग उपबन बादिटका सर कूप बापीं सोहहीं।  नर नाग सुर गंधब� कन्या रूप मुनिन मन मोहहीं॥  कहुँ माल देह निबसाल सैल समान अनितबल गज�हीं। नाना अखारेन्ह णिभरहिहं बहुनिबमिध एक एकन्ह तज�हीं॥2॥

भावार्थ�:-र्वान, बाग, उपर्वान (बगीचे), फुलर्वााड़ी, तालाब, कुएँ और बार्वाशिलयाँ सुशोणिभत हैं।मनुष्य, नाग, देर्वाताओं और गंधर्वाv की कन्याएँ अपने सौंदय� से मुनिनयों के भी मन को मोहे

लेती हैं। कहीं पर्वा�त के समान निर्वाशाल शरीर र्वााले बडे़ ही बलर्वाान्‌मल्ल (पहलर्वाान) गरज रहे हैं। र्वाे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से णिभड़ते और एक- दूसरे को ललकारते हैं॥2॥

* करिर जतन भट कोदिटन्ह निबकट तन नगर चहुँ दिदशिस रच्छहीं। कहुँ मनिहष मानुष धेनु खर अज खल निनसाचर भच्छहीं॥  एनिह लानिग तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।

रघुबीर सर तीरथ सरीरखिन्ह त्यानिग गनित पैहहिहं सही॥3॥भावार्थ�:- भयंकर शरीर र्वााले करोड़ों योtा यत्न करके ( बड़ी सार्वाधानी से) नगर की चारों

दिदशाओं में ( सब ओर से) रखर्वााली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीशिलए कुछ थोड़ी सी कही है निक ये

निनश्चय ही श्री रामचंद्रजी के बाण रूपी तीथ� में शरीरों को त्यागकर परमगनित पार्वाेंगे॥3॥दोहा-* पुर रखर्वाारे देखिख बहु कनिप मन कीन्ह निबचार।

अनित लघु रूप धरों निनशिस नगर करौं पइसार॥3॥भावार्थ�:- नगर के बहुसंख्यक रखर्वाालों को देखकर हनुमान्‌जी ने मन में निर्वाचार निकया निक

अत्यंत छोटा रूप धरँू और रात के समय नगर में प्रर्वाेश करँू॥3॥ चौपाई :

* मसक समान रूप कनिप धरी। लंकनिह चलेउ सुमिमरिर नरहरी॥ नाम लंनिकनी एक निनशिसचरी। सो कह चलेशिस मोनिह हिनंदरी॥1॥

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी मच्छड़ के समान ( छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने र्वााले भगर्वाान्‌श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले ( लंका के द्वार पर) लंनिकनी नाम

की एक राक्षसी रहती थी। र्वाह बोली- मेरा निनरादर करके ( निबना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥

* जानेनिह नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लनिग चोरा॥ मुदिठका एक महा कनिप हनी। रुमिधर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

भावार्थ�:- हे मूख�! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक (जिजतने) चोर हैं, र्वाे सब मेरे आहार हैं। महाकनिप हनुमान्‌जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिजससे र्वाह खून की उलटी करती हुई पृथ्र्वाी पर

ल�ढक पड़ी॥2॥* पुनिन संभारिर उठी सो लंका। जोरिर पानिन कर निबनय ससंका॥

जब रार्वाननिह ब्रह्म बर दीन्हा। चलत निबरंच कहा मोनिह चीन्हा॥3॥भावार्थ�:- र्वाह लंनिकनी निफर अपने को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर निर्वानती

करने लगी। ( र्वाह बोली-) रार्वाण को जब ब्रह्माजी ने र्वार दिदया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के निर्वानाश की यह पहचान बता दी थी निक-॥3॥

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निबकल होशिस तैं कनिप कें मारे। तब जानेसु निनशिसचर संघारे॥ तात मोर अनित पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

भावार्थ�:- जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बडे़ पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचंद्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई॥4॥ दोहा :

* तात स्र्वाग� अपबग� सुख धरिरअ तुला एक अंग। तूल न तानिह सकल मिमशिल जो सुख लर्वा सतसंग॥4॥

भावार्थ�:- हे तात! स्र्वाग� और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलडे़ में रखा जाए, तो भी र्वाे सब मिमलकर ( दूसरे पलडे़ पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लर्वा (क्षण)

मात्र के सत्संग से होता है॥4॥ चौपाई :

* प्रनिबशिस नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखिख कोसलपुर राजा॥ गरल सुधा रिरपु करहिहं मिमताई। गोपद क्तिसंधु अनल शिसतलाई॥1॥

भावार्थ�:- अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रर्वाेश करके सब काम कीजिजए। उसके शिलए निर्वाष अमृत हो जाता है, शतु्र मिमत्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के

खुर के बराबर हो जाता है, अखिग्न में शीतलता आ जाती है॥1॥* गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करिर शिचतर्वाा जाही॥

अनित लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिमरिर भगर्वााना॥2॥भावार्थ�:- और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वा�त उसके शिलए रज के समान हो जाता है, जिजसे श्री

रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख शिलया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण निकया और भगर्वाान्‌का स्मरण करके नगर में प्रर्वाेश निकया॥2॥

* मंदिदर मंदिदर प्रनित करिर सोधा। देखे जहँ तहँ अगनिनत जोधा॥ गयउ दसानन मंदिदर माहीं। अनित निबशिचत्र कनिह जात सो नाहीं॥3॥

भावार्थ�:- उन्होंने एक- एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ- तहाँ असंख्य योtा देखे। निफर र्वाे रार्वाण के महल में गए। र्वाह अत्यंत निर्वाशिचत्र था, जिजसका र्वाण�न नहीं हो सकता॥3॥

* सयन निकएँ देखा कनिप तेही। मंदिदर महँु न दीखिख बैदेही॥ भर्वान एक पुनिन दीख सुहार्वाा। हरिर मंदिदर तहँ णिभन्न बनार्वाा॥4॥

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी ने उस (रार्वाण) को शयन निकए देखा, परंतु महल में जानकीजी नहीं दिदखाई दीं। निफर एक सुंदर महल दिदखाई दिदया। र्वाहाँ (उसमें) भगर्वाान्‌का एक अलग मंदिदर

बना हुआ था॥4॥ दोहा :

* रामायुध अंनिकत गृह सोभा बरनिन न जाइ। नर्वा तुलशिसका बृंद तहँ देखिख हरष कनिपराई॥5॥

भावार्थ�:- र्वाह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के शिचह्नों से अंनिकत था, उसकी शोभा र्वाण�न नहीं की जा सकती। र्वाहाँ नर्वाीन- नर्वाीन तुलसी के र्वाृक्ष- समूहों को देखकर कनिपराज श्री

हनुमान्‌जी हर्षिषंत हुए॥5॥ चौपाई :

* लंका निनशिसचर निनकर निनर्वाासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥ मन महुँ तरक करैं कनिप लागा। तेहीं समय निबभीषनु जागा॥1॥

भावार्थ�:- लंका तो राक्षसों के समूह का निनर्वाास स्थान है। यहाँ सज्जन ( साधु पुरुष) का निनर्वाास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तक� करने लगे। उसी समय निर्वाभीषणजी जागे॥

1॥

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* राम राम तेहिहं सुमिमरन कीन्हा। हृदयँ हरष कनिप सज्जन चीन्हा॥ एनिह सन सदिठ करिरहउँ पनिहचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥

भावार्थ�:- उन्होंने ( निर्वाभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) निकया। हनमान्‌जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षिषंत हुए। ( हनुमान्‌जी ने निर्वाचार निकया निक) इनसे हठ करके

( अपनी ओर से ही) परिरचय करँूगा, क्योंनिक साधु से काय� की हानिन नहीं होती। ( प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥

* निबप्र रूप धरिर बचन सुनाए। सुनत निबभीषन उदिठ तहँ आए॥ करिर प्रनाम पूँछी कुसलाई। निबप्र कहहु निनज कथा बुझाई॥3॥

भावार्थ�:- ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान्‌जी ने उन्हें र्वाचन सुनाए (पुकारा) । सुनते ही निर्वाभीषणजी उठकर र्वाहाँ आए। प्रणाम करके कुशल पूछी ( और कहा निक) हे ब्राह्मणदेर्वा!

अपनी कथा समझाकर कनिहए॥3॥* की तुम्ह हरिर दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीनित अनित होई॥ 

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोनिह करन बड़भागी॥4॥भावार्थ�:- क्या आप हरिरभSों में से कोई हैं? क्योंनिक आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यंत प्रेम

उमड़ रहा है। अथर्वाा क्या आप दीनों से प्रेम करने र्वााले स्र्वायं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने (घर- बैठे दश�न देकर कृताथ� करने) आए हैं?॥4॥

दोहा :* तब हनुमंत कही सब राम कथा निनज नाम।

सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिमरिर गुन ग्राम॥6॥भावार्थ�:- तब हनुमान्‌जी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते

ही दोनों के शरीर पुलनिकत हो गए और श्री रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन ( पे्रम और आनंद में) मग्न हो गए॥6॥

चौपाई :* सुनहु पर्वानसुत रहनिन हमारी। जिजमिम दसनखिन्ह महँु जीभ निबचारी॥

तात कबहँु मोनिह जानिन अनाथा। करिरहहिहं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥भावार्थ�:-( निर्वाभीषणजी ने कहा-) हे पर्वानपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ र्वाैसे ही रहता हूँ जैसे

दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूय�कुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥1॥

* तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥ अब मोनिह भा भरोस हनुमंता। निबनु हरिरकृपा मिमलहिहं नहिहं संता॥2॥

भावार्थ�:- मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परंतु हे हनुमान्‌! अब मुझे निर्वाश्वास हो गया निक श्री

रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंनिक हरिर की कृपा के निबना संत नहीं मिमलते॥2॥* जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोनिह दरसु हदिठ दीन्हा॥

सुनहु निबभीषन प्रभु कै रीती। करहिहं सदा सेर्वाक पर प्रीनित॥3॥भावार्थ�:- जब श्री रघुर्वाीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके ( अपनी ओर से)

दश�न दिदए हैं। ( हनुमान्‌जी ने कहा-) हे निर्वाभीषणजी! सुनिनए, प्रभु की यही रीनित है निक र्वाे सेर्वाक पर सदा ही प्रेम निकया करते हैं॥3॥

* कहहु कर्वान मैं परम कुलीना। कनिप चंचल सबहीं निबमिध हीना॥ प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेनिह दिदन तानिह न मिमलै अहारा॥4॥

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भावार्थ�:- भला कनिहए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हँू? ( जानित का) चंचल र्वाानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिदन उसे भोजन न

मिमले॥4॥ दोहा :

* अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्हीं कृपा सुमिमरिर गुन भरे निबलोचन नीर॥7॥

भावार्थ�:- हे सखा! सुनिनए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगर्वाान्‌के गुणों का स्मरण करके हनुमान्‌जी के दोनों नेत्रों में ( पे्रमाश्रुओं का) जल भर आया॥7॥

चौपाई :* जानतहूँ अस स्र्वाामिम निबसारी। निफरहिहं ते काहे न होहिहं दुखारी॥

एनिह निबमिध कहत राम गुन ग्रामा। पार्वाा अनिनबा�च्य निबश्रामा॥1॥भावार्थ�:- जो जानते हुए भी ऐसे स्र्वाामी ( श्री रघुनाथजी) को भुलाकर ( निर्वाषयों के पीछे)

भटकते निफरते हैं, र्वाे दुःखी क्यों न हों? इस प्रकार श्री रामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिनर्वा�चनीय (परम) शांनित प्राप्त की॥1॥

* पुनिन सब कथा निबभीषन कही। जेनिह निबमिध जनकसुता तहँ रही॥ तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥2॥

भावार्थ�:- निफर निर्वाभीषणजी ने, श्री जानकीजी जिजस प्रकार र्वाहाँ ( लंका में) रहती थीं, र्वाह सब कथा कही। तब हनुमान्‌जी ने कहा- हे भाई सुनो, मैं जानकी माता को देखता चाहता हँू॥2॥ जुगुनित निबभीषन सकल सुनाई। चलेउ पर्वान सुत निबदा कराई॥

करिर सोइ रूप गयउ पुनिन तहर्वााँ। बन असोक सीता रह जहर्वााँ॥3॥भावार्थ�:- निर्वाभीषणजी ने ( माता के दश�न की) सब युशिSयाँ (उपाय) कह सुनाईं। तब

हनुमान्‌जी निर्वादा लेकर चले। निफर र्वाही ( पहले का मसक सरीखा) रूप धरकर र्वाहाँ गए, जहाँ अशोक र्वान में ( र्वान के जिजस भाग में) सीताजी रहती थीं॥3॥

* देखिख मननिह महँु कीन्ह प्रनामा। बैठेहिहं बीनित जात निनशिस जामा॥ कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपनित हृदयँ रघुपनित गुन श्रेनी॥4॥

भावार्थ�:- सीताजी को देखकर हनुमान्‌जी ने उन्हें मन ही में प्रणाम निकया। उन्हें बैठे ही बैठे रानित्र के चारों पहर बीत जाते हैं। शरीर दुबला हो गया है, शिसर पर जटाओं की एक र्वाेणी

(लट) है। हृदय में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं॥4॥ दोहा :

* निनज पद नयन दिदएँ मन राम पद कमल लीन। परम दुखी भा पर्वानसुत देखिख जानकी दीन॥8॥

भावार्थ�:- श्री जानकीजी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं ( नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्री रामजी के चरण कमलों में लीन है। जानकीजी को दीन (दुःखी) देखकर

पर्वानपुत्र हनुमान्‌जी बहुत ही दुःखी हुए॥8॥ चौपाई :

* तरु पल्लर्वा महँ रहा लुकाई। करइ निबचार करौं का भाई॥ तेनिह अर्वासर रार्वानु तहँ आर्वाा। संग नारिर बहु निकएँ बनार्वाा॥1॥

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी र्वाृक्ष के पwों में शिछप रहे और निर्वाचार करने लगे निक हे भाई! क्या करँू( इनका दुःख कैसे दूर करँू)? उसी समय बहुत सी स्त्रिस्त्रयों को साथ शिलए सज- धजकर रार्वाण

र्वाहाँ आया॥1॥

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* बहु निबमिध खल सीतनिह समुझार्वाा। साम दान भय भेद देखार्वाा॥ कह रार्वानु सुनु सुमुखिख सयानी। मंदोदरी आदिद सब रानी॥2॥

भावार्थ�:- उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया। साम, दान, भय और भेद दिदखलाया। रार्वाण ने कहा- हे सुमुखिख! हे सयानी! सुनो! मंदोदरी आदिद सब रानिनयों को-॥2॥

* तर्वा अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार निबलोकु मम ओरा॥ तृन धरिर ओट कहनित बैदेही। सुमिमरिर अर्वाधपनित परम सनेही॥3॥

भावार्थ�:- मैं तुम्हारी दासी बना दँूगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके जानकीजी नितनके की आड़

(परदा) करके कहने लगीं-॥3॥* सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ निक नशिलनी करइ निबकासा॥

अस मन समुझु कहनित जानकी। खल सुमिध नहिहं रघुबीर बान की॥4॥भावार्थ�:- हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमशिलनी खिखल सकती है? जानकीजी

निफर कहती हैं- तू ( अपने शिलए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुर्वाीर के बाण की खबर नहीं है॥4॥

* सठ सूनें हरिर आनेनिह मोही। अधम निनलज्ज लाज नहिहं तोही॥5॥भावार्थ�:- रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निनल�ज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?॥5॥

दोहा :* आपुनिह सुनिन खद्योत सम रामनिह भानु समान।

परुष बचन सुनिन कादिढ़ अशिस बोला अनित खिखशिसआन॥9॥भावार्थ�:- अपने को जुगनू के समान और रामचंद्रजी को सूय� के समान सुनकर और सीताजी

के कठोर र्वाचनों को सुनकर रार्वाण तलर्वाार निनकालकर बडे़ गुस्से में आकर बोला-॥9॥ चौपाई :

* सीता तैं मम कृत अपमाना। कदिटहउँ तर्वा शिसर कदिठन कृपाना॥ नाहिहं त सपदिद मानु मम बानी। सुमुखिख होनित न त जीर्वान हानी॥1॥

भावार्थ�:-सीता! तूने मेरा अपनाम निकया है। मैं तेरा शिसर इस कठोर कृपाण से काट डालँूगा। नहीं तो ( अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले। हे सुमुखिख! नहीं तो जीर्वान से हाथ धोना पडे़गा॥

1॥* स्याम सरोज दाम सम संुदर। प्रभु भुज करिर कर सम दसकंधर॥

सो भुज कंठ निक तर्वा अशिस घोरा। सुनु सठ अस प्रर्वाान पन मोरा॥2॥भावार्थ�:-( सीताजी ने कहा-) हे दशग्रीर्वा! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की माला के समान

संुदर और हाथी की सँूड के समान ( पुष्ट तथा निर्वाशाल) है, या तो र्वाह भुजा ही मेरे कंठ में पडे़गी या तेरी भयानक तलर्वाार ही। रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है॥2॥

* चंद्रहास हरु मम परिरतापं। रघुपनित निबरह अनल संजातं॥ सीतल निनशिसत बहशिस बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥3॥

भावार्थ�:- सीताजी कहती हैं- हे चंद्रहास (तलर्वाार)! श्री रघुनाथजी के निर्वारह की अखिग्न से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले, हे तलर्वाार! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती

है ( अथा�त्‌तेरी धारा ठंडी और तेज है), तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले॥3॥ चौपाई :

* सुनत बचन पुनिन मारन धार्वाा। मयतनयाँ कनिह नीनित बुझार्वाा॥ कहेशिस सकल निनशिसचरिरन्ह बोलाई। सीतनिह बहु निबमिध त्रासहु जाई॥4॥

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भावार्थ�:- सीताजी के ये र्वाचन सुनते ही र्वाह मारने दौड़ा। तब मय दानर्वा की पुत्री मन्दोदरी ने नीनित कहकर उसे समझाया। तब रार्वाण ने सब दाशिसयों को बुलाकर कहा निक जाकर सीता

को बहुत प्रकार से भय दिदखलाओ॥4॥* मास दिदर्वास महँु कहा न माना। तौ मैं मारनिब कादिढ़ कृपाना॥5॥भावार्थ�:- यदिद महीने भर में यह कहा न माने तो मैं इसे तलर्वाार निनकालकर मार डालूँगा॥5॥

दोहा :* भर्वान गयउ दसकंधर इहाँ निपसाशिचनिन बृंद।

सीतनिह त्रास देखार्वाहिहं धरहिहं रूप बहु मंद॥10॥भावार्थ�:-( यों कहकर) रार्वाण घर चला गया। यहाँ राक्षशिसयों के समूह बहुत से बुरे रूप

धरकर सीताजी को भय दिदखलाने लगे॥10॥ चौपाई :

* नित्रजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रनित निनपुन निबबेका॥ सबन्हौ बोशिल सुनाएशिस सपना। सीतनिह सेइ करहु निहत अपना॥1॥

भावार्थ�:- उनमें एक नित्रजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीनित थी और र्वाह निर्वारे्वाक (ज्ञान) में निनपुण थी। उसने सबों को बुलाकर अपना स्र्वाप्न सुनाया और कहा-

सीताजी की सेर्वाा करके अपना कल्याण कर लो॥1॥* सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥

खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंनिडत शिसर खंनिडत भुज बीसा॥2॥भावार्थ�:- स्र्वाप्न ( मैंने देखा निक) एक बंदर ने लंका जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली

गई। रार्वाण नंगा है और गदहे पर सर्वाार है। उसके शिसर मँुडे हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं॥2॥* एनिह निबमिध सो दच्छिच्छन दिदशिस जाई। लंका मनहँु निबभीषन पाई॥

नगर निफरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोशिल पठाई॥3॥भावार्थ�:- इस प्रकार से र्वाह दणिक्षण ( यमपुरी की) दिदशा को जा रहा है और मानो लंका

निर्वाभीषण ने पाई है। नगर में श्री रामचंद्रजी की दुहाई निफर गई। तब प्रभु ने सीताजी को बुलाभेजा॥3॥* यह सपना मैं कहउँ पुकारी। होइनिह सत्य गएँ दिदन चारी॥

तासु बचन सुनिन ते सब डरीं। जनकसुता के चरनखिन्ह परीं॥4॥भावार्थ�:- मैं पुकारकर ( निनश्चय के साथ) कहती हूँ निक यह स्र्वाप्न चार ( कुछ ही) दिदनों बाद

सत्य होकर रहेगा। उसके र्वाचन सुनकर र्वाे सब राक्षशिसयाँ डर गईं और जानकीजी के चरणों पर निगर पड़ीं॥4॥

दोहा :* जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।

मास दिदर्वास बीतें मोनिह मारिरनिह निनशिसचर पोच॥11॥भावार्थ�:- तब ( इसके बाद) र्वाे सब जहाँ- तहाँ चली गईं। सीताजी मन में सोच करने लगीं निक

एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रार्वाण मुझे मारेगा॥11॥ चौपाई :

* नित्रजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु निबपनित संनिगनिन तैं मोरी॥ तजौं देह करु बेनिग उपाई। दुसह निबरहु अब नहिहं सनिह जाई॥1॥

भावार्थ�:- सीताजी हाथ जोड़कर नित्रजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी निर्वापणिw की संनिगनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिजससे मैं शरीर छोड़ सकँू। निर्वारह असह्म हो चला है, अब यह

सहा नहीं जाता॥1॥

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* आनिन काठ रचु शिचता बनाई। मातु अनल पुनिन देनिह लगाई॥ सत्य करनिह मम प्रीनित सयानी। सुनै को श्रर्वान सूल सम बानी॥2॥

भावार्थ�:- काठ लाकर शिचता बनाकर सजा दे। हे माता! निफर उसमें आग लगा दे। हे सयानी! तू मेरी प्रीनित को सत्य कर दे। रार्वाण की शूल के समान दुःख देने र्वााली र्वााणी कानों से कौन

सुने?॥2॥* सुनत बचन पद गनिह समुझाएशिस। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएशिस॥

निनशिस न अनल मिमल सुनु सुकुमारी। अस कनिह सो निनज भर्वान शिसधारी।3॥भावार्थ�:- सीताजी के र्वाचन सुनकर नित्रजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया और प्रभु काप्रताप, बल और सुयश सुनाया। ( उसने कहा-) हे सुकुमारी! सुनो रानित्र के समय आग नहीं

मिमलेगी। ऐसा कहकर र्वाह अपने घर चली गई॥3॥* कह सीता निबमिध भा प्रनितकूला। मिमशिलनिह न पार्वाक मिमदिटनिह न सूला॥

देखिखअत प्रगट गगन अंगारा। अर्वानिन न आर्वात एकउ तारा॥4॥भावार्थ�:- सीताजी ( मन ही मन) कहने लगीं- ( क्या करँू) निर्वाधाता ही निर्वापरीत हो गया। न

आग मिमलेगी, न पीड़ा मिमटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिदखाई दे रहे हैं, पर पृथ्र्वाी पर एक भी तारा नहीं आता॥4॥

* पार्वाकमय सशिस स्रर्वात न आगी। मानहँु मोनिह जानिन हतभागी॥ सुननिह निबनय मम निबटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥5॥

भावार्थ�:- चंद्रमा अखिग्नमय है, हिकंतु र्वाह भी मानो मुझे हतभानिगनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक र्वाृक्ष! मेरी निर्वानती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य

कर॥5॥ नूतन निकसलय अनल समाना। देनिह अनिगनिन जनिन करनिह निनदाना॥ देखिख परम निबरहाकुल सीता। सो छन कनिपनिह कलप सम बीता॥6॥

भावार्थ�:- तेरे नए- नए कोमल पwे अखिग्न के समान हैं। अखिग्न दे, निर्वारह रोग का अंत मत कर( अथा�त्‌निर्वारह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा) सीताजी को निर्वारह से परम व्याकुल

देखकर र्वाह क्षण हनुमान्‌जी को कल्प के समान बीता॥6॥ सोरठा :

* कनिप करिर हृदयँ निबचार दीखिन्ह मुदिद्रका डारिर तब। जनु असोक अंगार दीन्ह हरनिष उदिठ कर गहेउ॥12॥

भावार्थ�:- तब हनुमान्‌जी ने हदय में निर्वाचार कर ( सीताजी के सामने) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिदया। ( यह समझकर) सीताजी ने हर्षिषंत होकर उठकर उसे हाथ में ले

शिलया॥12॥ चौपाई :

* तब देखी मुदिद्रका मनोहर। राम नाम अंनिकत अनित सुंदर॥ चनिकत शिचतर्वा मुदरी पनिहचानी। हरष निबषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥

भावार्थ�:- तब उन्होंने राम- नाम से अंनिकत अत्यंत संुदर एर्वां मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चय�चनिकत होकर उसे देखने लगीं और हष� तथा निर्वाषाद से हृदय में

अकुला उठीं॥1॥* जीनित को सकइ अजय रघुराई। माया तें अशिस रशिच नहिहं जाई॥

सीता मन निबचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥भावार्थ�:-( र्वाे सोचने लगीं-) श्री रघुनाथजी तो सर्वा�था अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है?

और माया से ऐसी ( माया के उपादान से सर्वा�था रनिहत दिदव्य, शिचन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा

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सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के निर्वाचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्‌जी मधुर र्वाचन बोले-॥2॥

* रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिहं सीता कर दुख भागा॥ लागीं सुनैं श्रर्वान मन लाई। आदिदहु तें सब कथा सुनाई॥3॥

भावार्थ�:- र्वाे श्री रामचंद्रजी के गुणों का र्वाण�न करने लगे, (जिजनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। रे्वा कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्‌जी ने आदिद से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥

* श्रर्वानामृत जेहिहं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होनित निकन भाई॥ तब हनुमंत निनकट चशिल गयऊ। निफरिर बैठीं मन निबसमय भयऊ ॥4॥

भावार्थ�:-( सीताजी बोलीं-) जिजसने कानों के शिलए अमृत रूप यह संुदर कथा कही, र्वाह हेभाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्‌जी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी निफरकर( मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चय� हुआ॥4॥* राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिनधान की॥

यह मुदिद्रका मातु मैं आनी। दीखिन्ह राम तुम्ह कहँ सनिहदानी॥5॥भावार्थ�:-( हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हँू। करुणानिनधान की

सच्ची शपथ करता हँू, हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हँू। श्री रामजी ने मुझे आपके शिलए यह सनिहदानी ( निनशानी या पनिहचान) दी है॥5॥

* नर बानरनिह संग कहु कैसें। कही कथा भइ संगनित जैसें॥6॥भावार्थ�:-( सीताजी ने पूछा-) नर और र्वाानर का संग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने जैसे

संग हुआ था, र्वाह सब कथा कही॥6॥ दोहा :

* कनिप के बचन सप्रेम सुनिन उपजा मन निबस्र्वाास जाना मन क्रम बचन यह कृपाक्तिसंधु कर दास॥13॥

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी के प्रेमयS र्वाचन सुनकर सीताजी के मन में निर्वाश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान शिलया निक यह मन, र्वाचन और कम� से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥

13॥ चौपाई :

* हरिरजन जानिन प्रीनित अनित गाढ़ी। सजल नयन पुलकार्वाशिल बाढ़ी॥ बूड़त निबरह जलमिध हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥

भावार्थ�:- भगर्वाान का जन (सेर्वाक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीनित हो गई। नेत्रों में ( पे्रमाश्रुओंका) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलनिकत हो गया ( सीताजी ने कहा-) हे तात हनुमान्‌!

निर्वारहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥1॥* अब कहु कुसल जाउँ बशिलहारी। अनुज सनिहत सुख भर्वान खरारी॥

कोमलशिचत कृपाल रघुराई। कनिप केनिह हेतु धरी निनठुराई॥2॥भावार्थ�:- मैं बशिलहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सनिहत खर के शतु्र सुखधाम प्रभु

का कुशल- मंगल कहो। श्री रघुनाथजी तो कोमल हृदय और कृपालु हैं। निफर हे हनुमान्‌! उन्होंने निकस कारण यह निनषु्ठरता धारण कर ली है?॥2॥

* सहज बानिन सेर्वाक सुखदायक। कबहँुक सुरनित करत रघुनायक॥ कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहिहं निनरखिख स्याम मृदु गाता॥3॥

भावार्थ�:- सेर्वाक को सुख देना उनकी स्र्वााभानिर्वाक बान है। र्वाे श्री रघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँर्वाले अंगों को देखकर मेरे नेत्र शीतल

होंगे?॥3॥

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* बचनु न आर्वा नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निनपट निबसारी॥ देखिख परम निबरहाकुल सीता। बोला कनिप मृदु बचन निबनीता॥4॥

भावार्थ�:-( मुँह से) र्वाचन नहीं निनकलता, नेत्रों में ( निर्वारह के आँसुओं का) जल भर आया।( बडे़ दुःख से र्वाे बोलीं-) हा नाथ! आपने मुझे निबलकुल ही भुला दिदया! सीताजी को निर्वारह से

परम व्याकुल देखकर हनुमान्‌जी कोमल और निर्वानीत र्वाचन बोले-॥4॥* मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तर्वा दुख दुखी सुकृपा निनकेता॥

जनिन जननी मानह जिजयँ ऊना। तुम्ह ते पे्रमु राम कें दूना॥5॥भावार्थ�:- हे माता! संुदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सनिहत ( शरीर से) कुशल हैं,

परंतु आपके दुःख से दुःखी हैं। हे माता! मन में ग्लानिन न मानिनए ( मन छोटा करके दुःख नकीजिजए) । श्री रामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना पे्रम है॥5॥

दोहा :* रघुपनित कर संदेसु अब सुनु जननी धरिर धीर।

अस कनिह कनिप गदगद भयउ भरे निबलोचन नीर॥14॥भावार्थ�:- हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का संदेश सुनिनए। ऐसा कहकर

हनुमान्‌जी प्रेम से गद्गद हो गए। उनके नेत्रों में ( पे्रमाश्रुओं का) जल भर आया॥14॥ चौपाई :

* कहेउ राम निबयोग तर्वा सीता। मो कहँु सकल भए निबपरीता॥ नर्वा तरु निकसलय मनहँु कृसानू। कालनिनसा सम निनशिस सशिस भानू॥1॥

भावार्थ�:-( हनुमान्‌जी बोले-) श्री रामचंद्रजी ने कहा है निक हे सीते! तुम्हारे निर्वायोग में मेरे शिलए सभी पदाथ� प्रनितकूल हो गए हैं। र्वाृक्षों के नए- नए कोमल पwे मानो अखिग्न के समान, रानित्र

कालरानित्र के समान, चंद्रमा सूय� के समान॥1॥ कुबलय निबनिपन कंुत बन सरिरसा। बारिरद तपत तेल जनु बरिरसा॥

जे निहत रहे करत तेइ पीरा। उरग स्र्वाास सम नित्रनिबध समीरा॥2॥भावार्थ�:- और कमलों के र्वान भालों के र्वान के समान हो गए हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल

बरसाते हैं। जो निहत करने र्वााले थे, र्वाे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। नित्रनिर्वाध (शीतल, मंद, सुगंध) र्वाायु साँप के श्वास के समान ( जहरीली और गरम) हो गई है॥2॥

* कहेहू तें कछु दुख घदिट होई। कानिह कहौं यह जान न कोई॥ तत्र्वा पे्रम कर मम अरु तोरा। जानत निप्रया एकु मनु मोरा॥3॥

भावार्थ�:- मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहँू निकससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे निप्रये! मेरे और तेरे पे्रम का तत्त्र्वा (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥3॥

* सो मनु सदा रहत तोनिह पाहीं। जानु प्रीनित रसु एतनेनिह माहीं॥ प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुमिध नहिहं तेही॥4॥

भावार्थ�:- और र्वाह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का संदेश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध न रही॥4॥

* कह कनिप हृदयँ धीर धरु माता। सुमिमरु राम सेर्वाक सुखदाता॥ उर आनहु रघुपनित प्रभुताई। सुनिन मम बचन तजहु कदराई॥5॥

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी ने कहा- हे माता! हृदय में धैय� धारण करो और सेर्वाकों को सुख देने र्वााले श्री रामजी का स्मरण करो। श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे र्वाचन

सुनकर कायरता छोड़ दो॥5॥ दोहा :

* निनशिसचर निनकर पतंग सम रघुपनित बान कृसानु। जननी हृदयँ धीर धरु जरे निनसाचर जानु॥15॥

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भावार्थ�:- राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अखिग्न के समान हैं। हे माता! हृदय में धैय� धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो॥15॥

चौपाई :* जौं रघुबीर होनित सुमिध पाई। करते नहिहं निबलंबु रघुराई॥

राम बान रनिब उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥भावार्थ�:- श्री रामचंद्रजी ने यदिद खबर पाई होती तो र्वाे निबलंब न करते। हे जानकीजी!

रामबाण रूपी सूय� के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है?॥1॥* अबहिहं मातु मैं जाउँ लर्वााई। प्रभु आयुस नहिहं राम दोहाई॥

कछुक दिदर्वास जननी धरु धीरा। कनिपन्ह सनिहत अइहहिहं रघुबीरा॥2॥भावार्थ�:- हे माता! मैं आपको अभी यहाँ से शिलर्वाा जाऊँ, पर श्री रामचंद्रजी की शपथ है, मुझे

प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है। (अतः) हे माता! कुछ दिदन और धीरज धरो। श्री रामचंद्रजी र्वाानरों सनिहत यहाँ आएगँे॥2॥

* निनशिसचर मारिर तोनिह लै जैहहिहं। नितहुँ पुर नारदादिद जसु गैहहिहं॥ हैं सुत कनिप सब तुम्हनिह समाना। जातुधान अनित भट बलर्वााना॥3॥भावार्थ�:- और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएगेँ। नारद आदिद (ऋनिष-मुनिन) तीनों लोकों में उनका यश गाएगँे। ( सीताजी ने कहा-) हे पुत्र! सब र्वाानर तुम्हारे ही समान (नन्हें- नन्हें से)

होंगे, राक्षस तो बडे़ बलर्वाान, योtा हैं॥3॥* मोरें हृदय परम संदेहा। सुनिन कनिप प्रगट कीखिन्ह निनज देहा॥

कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अनितबल बीरा॥4॥भावार्थ�:- अतः मेरे हृदय में बड़ा भारी संदेह होता है ( निक तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसेजीतेंगे!) । यह सुनकर हनुमान्‌जी ने अपना शरीर प्रकट निकया। सोने के पर्वा�त (सुमेरु) के

आकार का ( अत्यंत निर्वाशाल) शरीर था, जो युt में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करनेर्वााला, अत्यंत बलर्वाान्‌और र्वाीर था॥4॥* सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनिन लघु रूप पर्वानसुत लयऊ॥5॥भावार्थ�:- तब ( उसे देखकर) सीताजी के मन में निर्वाश्वास हुआ। हनुमान्‌जी ने निफर छोटा रूप

धारण कर शिलया॥5॥ दोहा :

* सुनु माता साखामृग नहिहं बल बुजिt निबसाल। प्रभु प्रताप तें गरुड़निह खाइ परम लघु ब्याल॥16॥

भावार्थ�:- हे माता! सुनो, र्वाानरों में बहुत बल- बुजिt नहीं होती, परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सप� भी गरुड़ को खा सकता है। ( अत्यंत निनब�ल भी महान्‌बलर्वाान्‌को मार सकता है)॥

16॥ चौपाई :

* मन संतोष सुनत कनिप बानी। भगनित प्रताप तेज बल सानी॥ आशिसष दीखिन्ह राम निप्रय जाना। होहु तात बल सील निनधाना॥1॥

भावार्थ�:-भशिS, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्‌जी की र्वााणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने श्री रामजी के निप्रय जानकर हनुमान्‌जी को आशीर्वाा�द दिदया निक हे

तात! तुम बल और शील के निनधान होओ॥1॥* अजर अमर गुननिनमिध सुत होहू। करहँु बहुत रघुनायक छोहू॥

करहँु कृपा प्रभु अस सुनिन काना। निनभ�र पे्रम मगन हनुमाना॥2॥

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भावार्थ�:- हे पुत्र! तुम अजर ( बुढ़ापे से रनिहत), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ' प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्‌जी पूण�

पे्रम में मग्न हो गए॥2॥* बार बार नाएशिस पद सीसा। बोला बचन जोरिर कर कीसा॥

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आशिसष तर्वा अमोघ निबख्याता॥3॥भावार्थ�:- हनुमान्‌जी ने बार- बार सीताजी के चरणों में शिसर नर्वााया और निफर हाथ जोड़करकहा- हे माता! अब मैं कृताथ� हो गया। आपका आशीर्वाा�द अमोघ (अचूक) है, यह बात

प्रशिसt है॥3॥* सुनहु मातु मोनिह अनितसय भूखा। लानिग देखिख सुंदर फल रूखा॥

सुनु सुत करहिहं निबनिपन रखर्वाारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥भावार्थ�:- हे माता! सुनो, संुदर फल र्वााले र्वाृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है।( सीताजी ने कहा-) हे बेटा! सुनो, बडे़ भारी योtा राक्षस इस र्वान की रखर्वााली करते हैं॥4॥* नितन्ह कर भय माता मोनिह नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥भावार्थ�:-( हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! यदिद आप मन में सुख मानें ( प्रसन्न होकर) आज्ञा दें

तो मुझे उनका भय तो निबलकुल नहीं है॥5॥ दोहा :

* देखिख बुजिt बल निनपुन कनिप कहेउ जानकीं जाहु। रघुपनित चरन हृदयँ धरिर तात मधुर फल खाहु॥17॥

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी को बुजिt और बल में निनपुण देखकर जानकीजी ने कहा- जाओ। हेतात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥17॥

चौपाई :* चलेउ नाइ शिसरु पैठेउ बागा। फल खाएशिस तरु तोरैं लागा॥

रहे तहाँ बहु भट रखर्वाारे। कछु मारेशिस कछु जाइ पुकारे॥1॥भावार्थ�:- र्वाे सीताजी को शिसर नर्वााकर चले और बाग में घुस गए। फल खाए और र्वाृक्षों को

तोड़ने लगे। र्वाहाँ बहुत से योtा रखर्वााले थे। उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रार्वाण से पुकार की-॥1॥

* नाथ एक आर्वाा कनिप भारी। तेहिहं असोक बादिटका उजारी॥ खाएशिस फल अरु निबटप उपारे। रच्छक मर्दिदं मर्दिदं मनिह डारे॥2॥

भावार्थ�:-( और कहा-) हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है। उसने अशोक र्वाादिटका उजाड़ डाली। फल खाए, र्वाृक्षों को उखाड़ डाला और रखर्वाालों को मसल- मसलकर जमीन पर डाल

दिदया॥2॥* सुनिन रार्वान पठए भट नाना। नितन्हनिह देखिख गज�उ हनुमाना॥

सब रजनीचर कनिप संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥भावार्थ�:- यह सुनकर रार्वाण ने बहुत से योtा भेजे। उन्हें देखकर हनुमान्‌जी ने गज�ना की।

हनुमान्‌जी ने सब राक्षसों को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, शिचल्लाते हुए गए॥3॥* पुनिन पठयउ तेहिहं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥

आर्वात देखिख निबटप गनिह तजा�। तानिह निनपानित महाधुनिन गजा�॥4॥भावार्थ�:- निफर रार्वाण ने अक्षयकुमार को भेजा। र्वाह असंख्य श्रेष्ठ योtाओं को साथ लेकर

चला। उसे आते देखकर हनुमान्‌जी ने एक रृ्वाक्ष ( हाथ में) लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्र्वानिन ( बडे़ जोर) से गज�ना की॥4॥

दोहा :

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* कछु मारेशिस कछु मद�शिस कछु मिमलएशिस धरिर धूरिर। कछु पुनिन जाइ पुकारे प्रभु मक� ट बल भूरिर॥18॥

भावार्थ�:- उन्होंने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ कोपकड़- पकड़कर धूल में मिमला दिदया। कुछ ने निफर जाकर पुकार की निक हे प्रभु! बंदर बहुत ही

बलर्वाान्‌है॥18॥ चौपाई :

* सुनिन सुत बध लंकेस रिरसाना। पठएशिस मेघनाद बलर्वााना॥ मारशिस जनिन सुत बाँधेसु ताही। देखिखअ कनिपनिह कहाँ कर आही॥1॥

भावार्थ�:- पुत्र का र्वाध सुनकर रार्वाण क्रोमिधत हो उठा और उसने ( अपने जेठे पुत्र) बलर्वाान्‌ मेघनाद को भेजा। ( उससे कहा निक-) हे पुत्र! मारना नहीं उसे बाँध लाना। उस बंदर को देखा

जाए निक कहाँ का है॥1॥* चला इंद्रजिजत अतुशिलत जोधा। बंधु निनधन सुनिन उपजा क्रोधा॥

कनिप देखा दारुन भट आर्वाा। कटकटाइ गजा� अरु धार्वाा॥2॥भावार्थ�:- इंद्र को जीतने र्वााला अतुलनीय योtा मेघनाद चला। भाई का मारा जाना सुन उसे

क्रोध हो आया। हनुमान्‌जी ने देखा निक अबकी भयानक योtा आया है। तब र्वाे कटकटाकर गज� और दौडे़॥3॥

* अनित निबसाल तरु एक उपारा। निबरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥ रहे महाभट ताके संगा। गनिह गनिह कनिप मद�ई निनज अंगा॥3॥

भावार्थ�:- उन्होंने एक बहुत बड़ा र्वाृक्ष उखाड़ शिलया और ( उसके प्रहार से) लंकेश्वर रार्वाण के पुत्र मेघनाद को निबना रथ का कर दिदया। ( रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक दिदया) । उसके साथ जो बडे़- बडे़ योtा थे, उनको पकड़- पकड़कर हनुमान्‌जी अपने शरीर से मसलने लगे॥3॥

* नितन्हनिह निनपानित तानिह सन बाजा। णिभरे जुगल मानहँु गजराजा॥ मुदिठका मारिर चढ़ा तरु जाई। तानिह एक छन मुरुछा आई॥4॥

भावार्थ�:- उन सबको मारकर निफर मेघनाद से लड़ने लगे। ( लड़ते हुए र्वाे ऐसे मालूम होते थे) मानो दो गजराज ( श्रेष्ठ हाथी) णिभड़ गए हों। हनुमान्‌जी उसे एक घूँसा मारकर र्वाृक्ष पर जा चढे़। उसको क्षणभर के शिलए मूच्छा� आ गई॥4॥ उदिठ बहोरिर कीखिन्हशिस बहु माया। जीनित न जाइ प्रभंजन जाया॥5॥

भावार्थ�:- निफर उठकर उसने बहुत माया रची, परंतु पर्वान के पुत्र उससे जीते नहीं जाते॥5॥ दोहा :

* ब्रह्म अस्त्र तेनिह साँधा कनिप मन कीन्ह निबचार। जौं न ब्रह्मसर मानउँ मनिहमा मिमटइ अपार॥19॥

भावार्थ�:- अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का संधान (प्रयोग) निकया, तब हनुमान्‌जी ने मन में निर्वाचार निकया निक यदिद ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हँू तो उसकी अपार मनिहमा मिमट जाएगी॥19॥ चौपाई :

* ब्रह्मबान कनिप कहँु तेहिहं मारा। परनितहुँ बार कटकु संघारा॥ तेहिहं देखा कनिप मुरुशिछत भयऊ। नागपास बाँधेशिस लै गयऊ॥1॥

भावार्थ�:- उसने हनुमान्‌जी को ब्रह्मबाण मारा, ( जिजसके लगते ही र्वाे र्वाृक्ष से नीचे निगर पडे़), परंतु निगरते समय भी उन्होंने बहुत सी सेना मार डाली। जब उसने देखा निक हनुमान्‌जी मूर्छिछंत

हो गए हैं, तब र्वाह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया॥1॥* जासु नाम जनिप सुनहु भर्वाानी। भर्वा बंधन काटहिहं नर ग्यानी॥

तासु दूत निक बंध तरु आर्वाा। प्रभु कारज लनिग कनिपहिहं बँधार्वाा॥2॥

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भावार्थ�:-( शिशर्वाजी कहते हैं-) हे भर्वाानी सुनो, जिजनका नाम जपकर ज्ञानी (निर्वार्वाेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है?

हिकंतु प्रभु के काय� के शिलए हनुमान्‌जी ने स्र्वायं अपने को बँधा शिलया॥2॥* कनिप बंधन सुनिन निनशिसचर धाए। कौतुक लानिग सभाँ सब आए॥

दसमुख सभा दीखिख कनिप जाई। कनिह न जाइ कछु अनित प्रभुताई॥3॥भावार्थ�:- बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौडे़ और कौतुक के शिलए ( तमाशा देखने केशिलए) सब सभा में आए। हनुमान्‌जी ने जाकर रार्वाण की सभा देखी। उसकी अत्यंत प्रभुता(ऐश्वय�) कुछ कही नहीं जाती॥3॥* कर जोरें सुर दिदशिसप निबनीता। भृकुदिट निबलोकत सकल सभीता॥

देखिख प्रताप न कनिप मन संका। जिजमिम अनिहगन महँु गरुड़ असंका॥4॥भावार्थ�:- देर्वाता और दिदक्पाल हाथ जोडे़ बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रार्वाण की भौं

ताक रहे हैं। ( उसका रुख देख रहे हैं) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान्‌जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ। र्वाे ऐसे निनःशंख खडे़ रहे, जैसे सपv के समूह में गरुड़ निनःशंख निनभ�य) रहते हैं॥4॥ दोहा :

* कनिपनिह निबलोनिक दसानन निबहसा कनिह दुबा�द। सुत बध सुरनित कीखिन्ह पुनिन उपजा हृदयँ निबसाद॥20॥

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी को देखकर रार्वाण दुर्वा�चन कहता हुआ खूब हँसा। निफर पुत्र र्वाध का स्मरण निकया तो उसके हृदय में निर्वाषाद उत्पन्न हो गया॥20॥ चौपाई :

* कह लंकेस कर्वान तैं कीसा। केनिह कें बल घालेनिह बन खीसा॥ की धौं श्रर्वान सुनेनिह नहिहं मोही। देखउँ अनित असंक सठ तोही॥1॥

भावार्थ�:- लंकापनित रार्वाण ने कहा- रे र्वाानर! तू कौन है? निकसके बल पर तूने र्वान को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे ( मेरा नाम और यश) कानों से नहीं सुना? रे

शठ! मैं तुझे अत्यंत निनःशंख देख रहा हँू॥1॥* मारे निनशिसचर केहिहं अपराधा। कहु सठ तोनिह न प्रान कइ बाधा॥

सुनु रार्वान ब्रह्मांड निनकाया। पाइ जासु बल निबरचनित माया॥2॥भावार्थ�:- तूने निकस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूख�! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय

नहीं है? ( हनुमान्‌जी ने कहा-) हे रार्वाण! सुन, जिजनका बल पाकर माया संपूण� ब्रह्मांडों के समूहों की रचना करती है,॥2॥

* जाकें बल निबरंशिच हरिर ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥ जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत निगरिर कानन॥3॥

भावार्थ�:- जिजनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, निर्वाष्णु, महेश (क्रमशः) सृमिष्ट का सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिजनके बल से सहस्रमुख (फणों) र्वााले शेषजी पर्वा�त और र्वानसनिहत

समस्त ब्रह्मांड को शिसर पर धारण करते हैं,॥3॥* धरइ जो निबनिबध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह शिसखार्वानु दाता॥

हर कोदंड कदिठन जेहिहं भंजा। तेनिह समेत नृप दल मद गंजा॥4॥भावार्थ�:- जो देर्वाताओं की रक्षा के शिलए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे

जैसे मूखv को शिशक्षा देने र्वााले हैं, जिजन्होंने शिशर्वाजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्वा� चूण� कर दिदया॥4॥

* खर दूषन नित्रशिसरा अरु बाली। बधे सकल अतुशिलत बलसाली॥5॥

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भावार्थ�:- जिजन्होंने खर, दूषण, नित्रशिशरा और बाशिल को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलर्वाान्‌थे,॥5॥

दोहा :* जाके बल लर्वालेस तें जिजतेहु चराचर झारिर।

तास दूत मैं जा करिर हरिर आनेहु निप्रय नारिर॥21॥भावार्थ�:- जिजनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत्‌को जीत शिलया और जिजनकी

निप्रय पत्नी को तुम ( चोरी से) हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ॥21॥ चौपाई :

* जानउँ मैं तुम्हारिर प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥ समर बाशिल सन करिर जसु पार्वाा। सुनिन कनिप बचन निबहशिस निबहरार्वाा॥1॥

भावार्थ�:- मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बाशिल से युt करके तुमने यश प्राप्त निकया था। हनुमान्‌जी के (मार्मिमंक) र्वाचन सुनकर रार्वाण ने

हँसकर बात टाल दी॥1॥* खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कनिप सुभार्वा तें तोरेउँ रूखा॥

सब कें देह परम निप्रय स्र्वाामी। मारहिहं मोनिह कुमारग गामी॥2॥भावार्थ�:- हे ( राक्षसों के) स्र्वाामी मुझे भूख लगी थी, (इसशिलए) मैंने फल खाए और र्वाानर

स्र्वाभार्वा के कारण र्वाृक्ष तोडे़। हे ( निनशाचरों के) माशिलक! देह सबको परम निप्रय है। कुमाग� पर चलने र्वााले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे॥2

* जिजन्ह मोनिह मारा ते मैं मारे। तेनिह पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥ मोनिह न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निनज प्रभु कर काजा॥3॥

भावार्थ�:- तब जिजन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध शिलया (हिकंतु), मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो अपने प्रभु का काय� करना चाहता हँू॥3॥

* निबनती करउँ जोरिर कर रार्वान। सुनहु मान तजिज मोर शिसखार्वान॥ देखहु तुम्ह निनज कुलनिह निबचारी। भ्रम तजिज भजहु भगत भय हारी॥4॥

भावार्थ�:- हे रार्वाण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे निर्वानती करता हँू, तुम अणिभमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पनिर्वात्र कुल का निर्वाचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भS भयहारी

भगर्वाान्‌को भजो॥4॥* जाकें डर अनित काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥

तासों बयरु कबहुँ नहिहं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥5॥भावार्थ�:- जो देर्वाता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, र्वाह काल भी जिजनके डर से

अत्यंत डरता है, उनसे कदानिप र्वाैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो॥5॥ दोहा :

* प्रनतपाल रघुनायक करुना क्तिसंधु खरारिर। गएँ सरन प्रभु राखिखहैं तर्वा अपराध निबसारिर॥22॥

भावार्थ�:- खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं। शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे॥22॥

चौपाई :* राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥

रिरनिष पुलस्तिस्त जसु निबमल मयंका। तेनिह सशिस महँु जनिन होहु कलंका॥1॥

Page 18: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:- तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋनिष पुलस्त्यजी का यश निनम�ल चंद्रमा के समान है। उस चंद्रमा में तुम कलंक न बनो॥

1॥* राम नाम निबनु निगरा न सोहा। देखु निबचारिर त्यानिग मद मोहा॥

बसन हीन नहिहं सोह सुरारी। सब भूषन भूनिषत बर नारी॥2॥भावार्थ�:- राम नाम के निबना र्वााणी शोभा नहीं पाती, मद- मोह को छोड़, निर्वाचारकर देखो। हे

देर्वाताओं के शतु्र! सब गहनों से सजी हुई संुदरी स्त्री भी कपड़ों के निबना (नंगी) शोभा नहींपाती॥2॥* राम निबमुख संपनित प्रभुताई। जाइ रही पाई निबनु पाई॥

सजल मूल जिजन्ह सरिरतन्ह नाहीं। बरनिष गएँ पुनिन तबहिहं सुखाहीं॥3॥भावार्थ�:- रामनिर्वामुख पुरुष की संपणिw और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका

पाना न पाने के समान है। जिजन नदिदयों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है। ( अथा�त्‌जिजन्हें केर्वाल बरसात ही आसरा है) र्वाे र्वाषा� बीत जाने पर निफर तुरंत ही सूख जाती हैं॥3॥

* सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। निबमुख राम त्राता नहिहं कोपी॥ संकर सहस निबष्नु अज तोही। सकहिहं न राखिख राम कर द्रोही॥4॥

भावार्थ�:- हे रार्वाण! सुनो, मैं प्रनितज्ञा करके कहता हँू निक रामनिर्वामुख की रक्षा करने र्वााला कोई भी नहीं है। हजारों शंकर, निर्वाष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने र्वााले तुमको नहीं बचा सकते॥4॥ दोहा :

* मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अणिभमान। भजहु राम रघुनायक कृपा क्तिसंधु भगर्वाान॥23॥

भावार्थ�:- मोह ही जिजनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनिनत), बहुत पीड़ा देने र्वााले, तमरूप अणिभमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्र्वाामी, कृपा के समुद्र भगर्वाान्‌श्री रामचंद्रजी का

भजन करो॥23॥ चौपाई :

* जदनिप कही कनिप अनित निहत बानी। भगनित निबबेक निबरनित नय सानी॥ बोला निबहशिस महा अणिभमानी। मिमला हमनिह कनिप गुर बड़ ग्यानी॥1॥

भावार्थ�:- यद्यनिप हनुमान्‌जी ने भशिS, ज्ञान, र्वाैराग्य और नीनित से सनी हुई बहुत ही निहत की र्वााणी कही, तो भी र्वाह महान्‌अणिभमानी रार्वाण बहुत हँसकर ( वं्यग्य से) बोला निक हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिमला!॥1॥

* मृत्यु निनकट आई खल तोही। लागेशिस अधम शिसखार्वान मोही॥ उलटा होइनिह कह हनुमाना। मनितभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥2॥

भावार्थ�:- रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निनकट आ गई है। अधम! मुझे शिशक्षा देने चला है। हनुमान्‌जी नेकहा- इससे उलटा ही होगा ( अथा�त्‌मृत्यु तेरी निनकट आई है, मेरी नहीं) । यह तेरा मनितभ्रम( बुजिt का फेर) है, मैंने प्रत्यक्ष जान शिलया है॥2॥* सुनिन कनिप बचन बहुत खिखशिसआना। बेनिग न हरहु मूढ़ कर प्राना॥

सुनत निनसाचर मारन धाए। सशिचर्वान्ह सनिहत निबभीषनु आए॥3॥भावार्थ�:- हनुमान्‌जी के र्वाचन सुनकर र्वाह बहुत ही कुनिपत हो गया। ( और बोला-) अरे! इस

मूख� का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौडे़ उसी समय मंनित्रयों के साथ निर्वाभीषणजी र्वाहाँ आ पहँुचे॥3॥

* नाइ सीस करिर निबनय बहूता। नीनित निबरोध न मारिरअ दूता॥ आन दंड कछु करिरअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥4॥

Page 19: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:- उन्होंने शिसर नर्वााकर और बहुत निर्वानय करके रार्वाण से कहा निक दूत को मारना नहींचानिहए, यह नीनित के निर्वारुt है। हे गोसाईं। कोई दूसरा दंड दिदया जाए। सबने कहा- भाई! यह

सलाह उwम है॥4॥* सुनत निबहशिस बोला दसकंधर। अंग भंग करिर पठइअ बंदर॥5॥भावार्थ�:- यह सुनते ही रार्वाण हँसकर बोला- अच्छा तो, बंदर को अंग- भंग करके भेज(लौटा) दिदया जाए॥5॥

दोहा :* कनिप कें ममता पँूछ पर सबनिह कहउँ समुझाइ।

तेल बोरिर पट बाँमिध पुनिन पार्वाक देहु लगाइ॥24॥भावार्थ�:- मैं सबको समझाकर कहता हँू निक बंदर की ममता पँूछ पर होती है। अतः तेल में

कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पँूछ में बाँधकर निफर आग लगा दो॥24॥ चौपाई :

* पँूछहीन बानर तहँ जाइनिह। तब सठ निनज नाथनिह लइ आइनिह॥ जिजन्ह कै कीखिन्हशिस बहुत बड़ाई। देखउ मैं नितन्ह कै प्रभुताई॥1॥

भावार्थ�:- जब निबना पँूछ का यह बंदर र्वाहाँ ( अपने स्र्वाामी के पास) जाएगा, तब यह मूख� अपने माशिलक को साथ ले आएगा। जिजनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता

(सामथ्य�) तो देखूँ!॥1॥* बचन सुनत कनिप मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥

जातुधान सुनिन रार्वान बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥2॥भावार्थ�:- यह र्वाचन सुनते ही हनुमान्‌जी मन में मुस्कुराए ( और मन ही मन बोले निक) मैं जान गया, सरस्र्वातीजी ( इसे ऐसी बुजिt देने में) सहायक हुई हैं। रार्वाण के र्वाचन सुनकर मूख� राक्षस

र्वाही ( पँूछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे॥2॥* रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पँूछ कीन्ह कनिप खेला॥

कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिहं चरन करहिहं बहु हाँसी॥3॥भावार्थ�:-( पँूछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी- तेल लगा निक) नगर में कपड़ा, घी और

तेल नहीं रह गया। हनुमान्‌जी ने ऐसा खेल निकया निक पूँछ बढ़ गई ( लंबी हो गई) । नगरर्वाासी लोग तमाशा देखने आए। र्वाे हनुमान्‌जी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी हँसी करते हैं॥

3॥* बाजहिहं ढोल देहिहं सब तारी। नगर फेरिर पुनिन पँूछ प्रजारी॥

पार्वाक जरत देखिख हनुमंता। भयउ परम लघुरूप तुरंता॥4॥भावार्थ�:- ढोल बजते हैं, सब लोग ताशिलयाँ पीटते हैं। हनुमान्‌जी को नगर में निफराकर, निफर

पँूछ में आग लगा दी। अखिग्न को जलते हुए देखकर हनुमान्‌जी तुरंत ही बहुत छोटे रूप में होगए॥4॥* निनबुनिक चढे़उ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निनसाचर नारीं॥5॥भावार्थ�:- बंधन से निनकलकर र्वाे सोने की अटारिरयों पर जा चढे़। उनको देखकर राक्षसों की

स्त्रिस्त्रयाँ भयभीत हो गईं॥5॥ दोहा :

* हरिर प्रेरिरत तेनिह अर्वासर चले मरुत उनचास। अट्टहास करिर गजा� कनिप बदिढ़ लाग अकास॥25॥

भावार्थ�:- उस समय भगर्वाान्‌की पे्ररणा से उनचासों पर्वान चलने लगे। हनुमान्‌जी अट्टहास करके गज� और बढ़कर आकाश से जा लगे॥25॥ चौपाई :

Page 20: Sunderkand Hindi Meaning

* देह निबसाल परम हरुआई। मंदिदर तें मंदिदर चढ़ धाई॥ जरइ नगर भा लोग निबहाला। झपट लपट बहु कोदिट कराला॥1॥

भावार्थ�:- देह बड़ी निर्वाशाल, परंतु बहुत ही हल्की (फुत¡ली) है। र्वाे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं। नगर जल रहा है लोग बेहाल हो गए हैं। आग की करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही हैं॥1॥

* तात मातु हा सुनिनअ पुकारा। एहिहं अर्वासर को हमनिह उबारा॥ हम जो कहा यह कनिप नहिहं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥

भावार्थ�:- हाय बप्पा! हाय मैया! इस अर्वासर पर हमें कौन बचाएगा? ( चारों ओर) यही पुकार सुनाई पड़ रही है। हमने तो पहले ही कहा था निक यह र्वाानर नहीं है, र्वाानर का रूप धरे कोई देर्वाता है!॥2॥

* साधु अर्वाग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥ जारा नगरु निनमिमष एक माहीं। एक निबभीषन कर गृह नाहीं॥3॥

भावार्थ�:- साधु के अपमान का यह फल है निक नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है। हनुमान्‌जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक निर्वाभीषण का घर नहीं जलाया॥3॥

* ताकर दूत अनल जेहिहं शिसरिरजा। जरा न सो तेनिह कारन निगरिरजा॥ उलदिट पलदिट लंका सब जारी। कूदिद परा पुनिन क्तिसंधु मझारी॥4॥

भावार्थ�:-( शिशर्वाजी कहते हैं-) हे पार्वा�ती! जिजन्होंने अखिग्न को बनाया, हनुमान्‌जी उन्हीं के दूत हैं। इसी कारण र्वाे अखिग्न से नहीं जले। हनुमान्‌जी ने उलट- पलटकर ( एक ओर से दूसरी ओर

तक) सारी लंका जला दी। निफर र्वाे समुद्र में कूद पडे़॥ दोहा :

* पँूछ बुझाइ खोइ श्रम धरिर लघु रूप बहोरिर। जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरिर॥26॥

भावार्थ�:- पँूछ बुझाकर, थकार्वाट दूर करके और निफर छोटा सा रूप धारण कर हनुमान्‌जी श्री जानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खडे़ हुए॥26॥

चौपाई :* मातु मोनिह दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोनिह दीन्हा॥

चूड़ामनिन उतारिर तब दयऊ। हरष समेत पर्वानसुत लयऊ॥1॥भावार्थ�:-( हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई शिचह्न (पहचान) दीजिजए, जैसे श्री

रघुनाथजी ने मुझे दिदया था। तब सीताजी ने चूड़ामणिण उतारकर दी। हनुमान्‌जी ने उसको हष�पूर्वा�क ले शिलया॥1॥

* कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥ दीन दयाल निबरिरदु संभारी। हरहु नाथ सम संकट भारी॥2॥

भावार्थ�:-( जानकीजी ने कहा-) हे तात! मेरा प्रणाम निनर्वाेदन करना और इस प्रकार कहना- हे प्रभु! यद्यनिप आप सब प्रकार से पूण� काम हैं ( आपको निकसी प्रकार की कामना नहीं है),

तथानिप दीनों (दुःखिखयों) पर दया करना आपका निर्वारद है ( और मैं दीन हूँ) अतः उस निर्वारद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिजए॥2॥

* तात सक्रसुत कथा सनाएहु। बान प्रताप प्रभुनिह समुझाएहु॥ मास दिदर्वास महँु नाथु न आर्वाा। तौ पुनिन मोनिह जिजअत नहिहं पार्वाा॥3॥

भावार्थ�:- हे तात! इंद्रपुत्र जयंत की कथा (घटना) सुनाना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना ( स्मरण कराना) । यदिद महीने भर में नाथ न आए तो निफर मुझे जीती न पाएगँे॥3॥

* कहु कनिप केनिह निबमिध राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना॥ तोनिह देखिख सीतशिल भइ छाती। पुनिन मो कहुँ सोइ दिदनु सो राती॥4॥

Page 21: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:- हे हनुमान्‌! कहो, मैं निकस प्रकार प्राण रखूँ! हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो। तुमको देखकर छाती ठंडी हुई थी। निफर मुझे र्वाही दिदन और र्वाही रात!॥4॥ दोहा :

* जनकसुतनिह समुझाइ करिर बहु निबमिध धीरजु दीन्ह। चरन कमल शिसरु नाइ कनिप गर्वानु राम पहिहं कीन्ह॥27॥

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी ने जानकीजी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिदया और उनके चरणकमलों में शिसर नर्वााकर श्री रामजी के पास गमन निकया॥27॥

चौपाई :* चलत महाधुनिन गज�शिस भारी। गभ� स्रर्वाहिहं सुनिन निनशिसचर नारी॥

नामिघ क्तिसंधु एनिह पारनिह आर्वाा। सबद निकशिलनिकला कनिपन्ह सुनार्वाा॥1॥भावार्थ�:- चलते समय उन्होंने महाध्र्वानिन से भारी गज�न निकया, जिजसे सुनकर राक्षसों की स्त्रिस्त्रयों

के गभ� निगरने लगे। समुद्र लाँघकर रे्वा इस पार आए और उन्होंने र्वाानरों को निकलनिकला शब्द(हष�ध्र्वानिन) सुनाया॥1॥* हरषे सब निबलोनिक हनुमाना। नूतन जन्म कनिपन्ह तब जाना॥

मुख प्रसन्न तन तेज निबराजा। कीन्हेशिस रामचंद्र कर काजा॥2॥भावार्थ�:- हनुमान्‌जी को देखकर सब हर्षिषंत हो गए और तब र्वाानरों ने अपना नया जन्म

समझा। हनुमान्‌जी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज निर्वाराजमान है, ( जिजससे उन्होंने समझ शिलया निक) ये श्री रामचंद्रजी का काय� कर आए हैं॥2॥

* मिमले सकल अनित भए सुखारी। तलफत मीन पार्वा जिजमिम बारी॥ चले हरनिष रघुनायक पासा। पँूछत कहत नर्वाल इनितहासा॥3॥

भावार्थ�:- सब हनुमान्‌जी से मिमले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिमल गया हो। सब हर्षिषंत होकर नए- नए इनितहास (र्वाृwांत) पूछते- कहते हुए श्री रघुनाथजी

के पास चले॥3॥* तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥

रखर्वाारे जब बरजन लागे। मुमिष्ट प्रहार हनत सब भागे॥4॥भावार्थ�:- तब सब लोग मधुर्वान के भीतर आए और अंगद की सम्मनित से सबने मधुर फल( या मधु और फल) खाए। जब रखर्वााले बरजने लगे, तब घूँसों की मार मारते ही सब रखर्वााले

भाग छूटे॥4॥ दोहा :

* जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज। सुनिन सुग्रीर्वा हरष कनिप करिर आए प्रभु काज॥28॥

भावार्थ�:- उन सबने जाकर पुकारा निक युर्वाराज अंगद र्वान उजाड़ रहे हैं। यह सुनकर सुग्रीर्वा हर्षिषंत हुए निक र्वाानर प्रभु का काय� कर आए हैं॥28॥ चौपाई :

* जौं न होनित सीता सुमिध पाई। मधुबन के फल सकहिहं निक काई॥ एनिह निबमिध मन निबचार कर राजा। आइ गए कनिप सनिहत समाजा॥1॥

भावार्थ�:- यदिद सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या र्वाे मधुर्वान के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीर्वा मन में निर्वाचार कर ही रहे थे निक समाज सनिहत र्वाानर आ गए॥1॥

* आइ सबखिन्ह नार्वाा पद सीसा। मिमलेउ सबखिन्ह अनित पे्रम कपीसा॥ पँूछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु निबसेषी॥2॥

Page 22: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:-( सबने आकर सुग्रीर्वा के चरणों में शिसर नर्वााया। कनिपराज सुग्रीर्वा सभी से बडे़ पे्रम के साथ मिमले। उन्होंने कुशल पूछी, ( तब र्वाानरों ने उwर दिदया-) आपके चरणों के दश�न से सब कुशल है। श्री रामजी की कृपा से निर्वाशेष काय� हुआ ( काय� में निर्वाशेष सफलता हुई है)॥2॥

* नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कनिपन्ह के प्राना॥ सुनिन सुग्रीर्वा बहुरिर तेनिह मिमलेऊ कनिपन्ह सनिहत रघुपनित पहिहं चलेऊ॥3॥

भावार्थ�:- हे नाथ! हनुमान ने सब काय� निकया और सब र्वाानरों के प्राण बचा शिलए। यह सुनकर सुग्रीर्वाजी हनुमान्‌जी से निफर मिमले और सब र्वाानरों समेत श्री रघुनाथजी के पास चले॥

3॥* राम कनिपन्ह जब आर्वात देखा। निकएँ काजु मन हरष निबसेषा॥

फदिटक शिसला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कनिप चरनखिन्ह जाई॥4॥भावार्थ�:- श्री रामजी ने जब र्वाानरों को काय� निकए हुए आते देखा तब उनके मन में निर्वाशेष हष�

हुआ। दोनों भाई स्फदिटक शिशला पर बैठे थे। सब र्वाानर जाकर उनके चरणों पर निगर पडे़॥4॥ दोहा :

* प्रीनित सनिहत सब भेंटे रघुपनित करुना पुंज॥ पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखिख पद कंज॥29॥

भावार्थ�:- दया की राशिश श्री रघुनाथजी सबसे प्रेम सनिहत गले लगकर मिमले और कुशल पूछी।( र्वाानरों ने कहा-) हे नाथ! आपके चरण कमलों के दश�न पाने से अब कुशल है॥29॥

चौपाई :* जामर्वांत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥

तानिह सदा सुभ कुसल निनरंतर। सुर नर मुनिन प्रसन्न ता ऊपर॥1॥भावार्थ�:- जाम्बर्वाान्‌ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिनए। हे नाथ! जिजस पर आप दया करते हैं,

उसे सदा कल्याण और निनरंतर कुशल है। देर्वाता, मनुष्य और मुनिन सभी उस पर प्रसन्न रहतेहैं॥1॥* सोइ निबजई निबनई गुन सागर। तासु सुजसु तै्रलोक उजागर॥

प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥भावार्थ�:- र्वाही निर्वाजयी है, र्वाही निर्वानयी है और र्वाही गुणों का समुद्र बन जाता है। उसी का

संुदर यश तीनों लोकों में प्रकाशिशत होता है। प्रभु की कृपा से सब काय� हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया॥2॥

* नाथ पर्वानसुत कीखिन्ह जो करनी। सहसहँु मुख न जाइ सो बरनी॥ पर्वानतनय के चरिरत सुहाए। जामर्वांत रघुपनितनिह सुनाए॥3॥

भावार्थ�:- हे नाथ! पर्वानपुत्र हनुमान्‌ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी र्वाण�न नहीं निकया जा सकता। तब जाम्बर्वाान्‌ने हनुमान्‌जी के सुंदर चरिरत्र (काय�) श्री रघुनाथजी को

सुनाए॥3॥* सुनत कृपानिनमिध मन अनित भाए। पुनिन हनुमान हरनिष निहयँ लाए॥

कहहु तात केनिह भाँनित जानकी। रहनित करनित रच्छा स्र्वाप्रान की॥4॥भावार्थ�:-( र्वाे चरिरत्र) सुनने पर कृपानिनमिध श्री रामचंदजी के मन को बहुत ही अचे्छ लगे।

उन्होंने हर्षिषंत होकर हनुमान्‌जी को निफर हृदय से लगा शिलया और कहा- हे तात! कहो, सीता निकस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?॥4॥ दोहा :

* नाम पाहरू दिदर्वास निनशिस ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निनज पद जंनित्रत जाहिहं प्रान केहिहं बाट॥30॥

Page 23: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:-( हनुमान्‌जी ने कहा-) आपका नाम रात- दिदन पहरा देने र्वााला है, आपका ध्यान ही हिकंर्वााड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, निफर प्राण जाएँ तो

निकस माग� से?॥30॥ चौपाई :

* चलत मोनिह चूड़ामनिन दीन्हीं। रघुपनित हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥ नाथ जुगल लोचन भरिर बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥

भावार्थ�:- चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणिण (उतारकर) दी। श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा शिलया। ( हनुमान्‌जी ने निफर कहा-) हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी

ने मुझसे कुछ र्वाचन कहे-॥1॥* अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारनित हरना॥

मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिहं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥भावार्थ�:- छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना ( और कहना निक) आप दीनबंधु हैं,

शरणागत के दुःखों को हरने र्वााले हैं और मैं मन, र्वाचन और कम� से आपके चरणों की अनुरानिगणी हँू। निफर स्र्वाामी (आप) ने मुझे निकस अपराध से त्याग दिदया?॥2॥

* अर्वागुन एक मोर मैं माना। निबछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥ नाथ सो नयनखिन्ह को अपराधा। निनसरत प्रान करहिहं हदिठ बाधा॥3॥

भावार्थ�:-(हाँ) एक दोष मैं अपना (अर्वाश्य) मानती हँू निक आपका निर्वायोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, हिकंतु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निनकलने में हठपूर्वा�क बाधा देते हैं॥3॥

* निबरह अनिगनिन तनु तूल समीरा। स्र्वाास जरइ छन माहिहं सरीरा॥ नयन स्रर्वाहिहं जलु निनज निहत लागी। जरैं न पार्वा देह निबरहागी॥4॥

भावार्थ�:- निर्वारह अखिग्न है, शरीर रूई है और श्वास पर्वान है, इस प्रकार ( अखिग्न और पर्वान का संयोग होने से) यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है, परंतु नेत्र अपने निहत के शिलए प्रभु का स्र्वारूप देखकर ( सुखी होने के शिलए) जल (आँसू) बरसाते हैं, जिजससे निर्वारह की आग से भी

देह जलने नहीं पाती॥4॥* सीता कै अनित निबपनित निबसाला। निबनहिहं कहें भशिल दीनदयाला॥5॥भावार्थ�:- सीताजी की निर्वापणिw बहुत बड़ी है। हे दीनदयालु! र्वाह निबना कही ही अच्छी है( कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा)॥5॥

दोहा :* निनमिमष निनमिमष करुनानिनमिध जाहिहं कलप सम बीनित।

बेनिग चशिलअ प्रभु आनिनअ भुज बल खल दल जीनित॥31॥भावार्थ�:- हे करुणानिनधान! उनका एक- एक पल कल्प के समान बीतता है। अतः हे प्रभु!

तुरंत चशिलए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीताजी को ले आइए॥31॥

चौपाई :* सुनिन सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरिर आए जल राजिजर्वा नयना॥

बचन कायँ मन मम गनित जाही। सपनेहँु बूजिझअ निबपनित निक ताही॥1॥भावार्थ�:- सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और र्वाे बोले-) मन, र्वाचन और शरीर से जिजसे मेरी ही गनित ( मेरा ही आश्रय) है, उसे क्या स्र्वाप्न में भी निर्वापणिw हो सकती है?॥1॥

* कह हनुमंत निबपनित प्रभु सोई। जब तर्वा सुमिमरन भजन न होई॥ केनितक बात प्रभु जातुधान की। रिरपुनिह जीनित आनिनबी जानकी॥2॥

Page 24: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:- हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभु! निर्वापणिw तो र्वाही (तभी) है जब आपका भजन- स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसों की बात ही निकतनी है? आप शतु्र को जीतकर जानकीजी को ले

आर्वाेंगे॥2॥* सुनु कनिप तोनिह समान उपकारी। नहिहं कोउ सुर नर मुनिन तनुधारी॥

प्रनित उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3॥भावार्थ�:-( भगर्वाान्‌कहने लगे-) हे हनुमान्‌! सुन, तेरे समान मेरा उपकारी देर्वाता, मनुष्य

अथर्वाा मुनिन कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार ( बदले में उपकार) तो क्या करँू, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता॥3॥

* सुनु सुत तोनिह उरिरन मैं नाहीं। देखेउँ करिर निबचार मन माहीं॥ पुनिन पुनिन कनिपनिह शिचतर्वा सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अनित गाता॥4॥

भावार्थ�:- हे पुत्र! सुन, मैंने मन में (खूब) निर्वाचार करके देख शिलया निक मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता। देर्वाताओं के रक्षक प्रभु बार- बार हनुमान्‌जी को देख रहे हैं। नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का

जल भरा है और शरीर अत्यंत पुलनिकत है॥4॥ दोहा :

* सुनिन प्रभु बचन निबलोनिक मुख गात हरनिष हनुमंत। चरन परेउ पे्रमाकुल त्रानिह त्रानिह भगर्वांत॥32॥

भावार्थ�:- प्रभु के र्वाचन सुनकर और उनके (प्रसन्न) मुख तथा (पुलनिकत) अंगों को देखकर हनुमान्‌जी हर्षिषंत हो गए और पे्रम में निर्वाकल होकर ' हे भगर्वान्‌! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो'

कहते हुए श्री रामजी के चरणों में निगर पडे़॥32॥ चौपाई :

* बार बार प्रभु चहइ उठार्वाा। पे्रम मगन तेनिह उठब न भार्वाा॥ प्रभु कर पंकज कनिप कें सीसा। सुमिमरिर सो दसा मगन गौरीसा॥1॥

भावार्थ�:- प्रभु उनको बार- बार उठाना चाहते हैं, परंतु पे्रम में डूबे हुए हनुमान्‌जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु का करकमल हनुमान्‌जी के शिसर पर है। उस च्छिस्थनित का स्मरण करके शिशर्वाजी पे्रममग्न हो गए॥1॥

* सार्वाधान मन करिर पुनिन संकर। लागे कहन कथा अनित सुंदर॥ कनिप उठाई प्रभु हृदयँ लगार्वाा। कर गनिह परम निनकट बैठार्वाा॥2॥

भावार्थ�:- निफर मन को सार्वाधान करके शंकरजी अत्यंत सुंदर कथा कहने लगे- हनुमान्‌जी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यंत निनकट बैठा शिलया॥2॥

* कहु कनिप रार्वान पाशिलत लंका। केनिह निबमिध दहेउ दुग� अनित बंका॥ प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन निबगत अणिभमाना॥3॥

भावार्थ�:- हे हनुमान्‌! बताओ तो, रार्वाण के द्वारा सुरणिक्षत लंका और उसके बडे़ बाँके निकले को तुमने निकस तरह जलाया? हनुमान्‌जी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और र्वाे अणिभमानरनिहत र्वाचन

बोले- ॥3॥* साखामग कै बनिड़ मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥

नामिघ क्तिसंधु हाटकपुर जारा। निनशिसचर गन बमिध निबनिपन उजारा॥4॥भावार्थ�:- बंदर का बस, यही बड़ा पुरुषाथ� है निक र्वाह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता

है। मैंने जो समुद्र लाँघकर सोने का नगर जलाया और राक्षसगण को मारकर अशोक र्वान को उजाड़ डाला,॥4॥

* सो सब तर्वा प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरिर प्रभुताई॥5॥भावार्थ�:- यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता(बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥5॥

Page 25: Sunderkand Hindi Meaning

दोहा :* ता कहँु प्रभु कछु अगम नहिहं जा पर तुम्ह अनुकूल।

तर्वा प्रभार्वाँ बड़र्वाानलनिह जारिर सकइ खलु तूल॥33॥भावार्थ�:- हे प्रभु! जिजस पर आप प्रसन्न हों, उसके शिलए कुछ भी कदिठन नहीं है। आपके

प्रभार्वा से रूई ( जो स्र्वायं बहुत जल्दी जल जाने र्वााली र्वास्तु है) बड़र्वाानल को निनश्चय ही जला सकती है ( अथा�त्‌असंभर्वा भी संभर्वा हो सकता है)॥3॥ चौपाई :

* नाथ भगनित अनित सुखदायनी। देहु कृपा करिर अनपायनी॥ सुनिन प्रभु परम सरल कनिप बानी। एर्वामस्तु तब कहेउ भर्वाानी॥1॥

भावार्थ�:- हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने र्वााली अपनी निनश्चल भशिS कृपा करके दीजिजए। हनुमान्‌जी की अत्यंत सरल र्वााणी सुनकर, हे भर्वाानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने 'एर्वामस्तु'

( ऐसा ही हो) कहा॥1॥* उमा राम सुभाउ जेहिहं जाना। तानिह भजनु तजिज भार्वा न आना॥

यह संबाद जासु उर आर्वाा। रघुपनित चरन भगनित सोइ पार्वाा॥2॥भावार्थ�:- हे उमा! जिजसने श्री रामजी का स्र्वाभार्वा जान शिलया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात

ही नहीं सुहाती। यह स्र्वाामी- सेर्वाक का संर्वााद जिजसके हृदय में आ गया, र्वाही श्री रघुनाथजी के चरणों की भशिS पा गया॥2॥

* सुनिन प्रभु बचन कहहिहं कनिप बृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥ तब रघुपनित कनिपपनितनिह बोलार्वाा। कहा चलैं कर करहु बनार्वाा॥3॥

भावार्थ�:- प्रभु के र्वाचन सुनकर र्वाानरगण कहने लगे- कृपालु आनंदकंद श्री रामजी की जय हो जय हो, जय हो! तब श्री रघुनाथजी ने कनिपराज सुग्रीर्वा को बुलाया और कहा- चलने की

तैयारी करो॥3॥* अब निबलंबु केह कारन कीजे। तुरंत कनिपन्ह कहँ आयसु दीजे॥

कौतुक देखिख सुमन बहु बरषी। नभ तें भर्वान चले सुर हरषी॥4॥भावार्थ�:- अब निर्वालंब निकस कारण निकया जाए। र्वाानरों को तुरंत आज्ञा दो। ( भगर्वाान्‌की) यह

लीला ( रार्वाणर्वाध की तैयारी) देखकर, बहुत से फूल बरसाकर और हर्षिषंत होकर देर्वाता आकाश से अपने- अपने लोक को चले॥4॥

दोहा :* कनिपपनित बेनिग बोलाए आए जूथप जूथ।

नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥34॥भावार्थ�:- र्वाानरराज सुग्रीर्वा ने शीघ्र ही र्वाानरों को बुलाया, सेनापनितयों के समूह आ गए।र्वाानर- भालुओं के झुंड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है॥34॥

चौपाई :* प्रभु पद पंकज नार्वाहिहं सीसा। गज�हिहं भालु महाबल कीसा॥

देखी राम सकल कनिप सेना। शिचतइ कृपा करिर राजिजर्वा नैना॥1॥भावार्थ�:- र्वाे प्रभु के चरण कमलों में शिसर नर्वााते हैं। महान्‌बलर्वाान्‌रीछ और र्वाानर गरज रहे

हैं। श्री रामजी ने र्वाानरों की सारी सेना देखी। तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वा�क उनकी ओर दृमिष्टडाली॥1॥* राम कृपा बल पाइ कहिपंदा। भए पच्छजुत मनहुँ निगरिरंदा॥

हरनिष राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥2॥भावार्थ�:- राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ र्वाानर मानो पंखर्वााले बडे़ पर्वा�त हो गए। तब श्री

रामजी ने हर्षिषंत होकर प्रस्थान (कूच) निकया। अनेक संुदर और शुभ शकुन हुए॥2॥

Page 26: Sunderkand Hindi Meaning

* जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥ प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरनिक बाम अँग जनु कनिह देहीं॥3॥

भावार्थ�:- जिजनकी कीर्षितं सब मंगलों से पूण� है, उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीनित है ( लीला की मया�दा है) । प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान शिलया। उनके बाएँ अंग

फड़क- फड़ककर मानो कहे देते थे ( निक श्री रामजी आ रहे हैं)॥3॥* जोइ जोइ सगुन जाननिकनिह होई। असगुन भयउ रार्वानहिहं सोई॥

चला कटकु को बरनैं पारा। गज�हिहं बानर भालु अपारा॥4॥भावार्थ�:- जानकीजी को जो- जो शकुन होते थे, र्वाही- र्वाही रार्वाण के शिलए अपशकुन हुए। सेना चली, उसका र्वाण�न कौन कर सकता है? असंख्य र्वाानर और भालू गज�ना कर रहे हैं॥4॥* नख आयुध निगरिर पादपधारी। चले गगन मनिह इच्छाचारी॥

केहरिरनाद भालु कनिप करहीं। डगमगाहिहं दिदग्गज शिचक्करहीं॥5॥भावार्थ�:- नख ही जिजनके शस्त्र हैं, र्वाे इच्छानुसार ( सर्वा�त्र बेरोक-टोक) चलने र्वााले रीछ- र्वाानर

पर्वा�तों और र्वाृक्षों को धारण निकए कोई आकाश माग� से और कोई पृथ्र्वाी पर चले जा रहे हैं। र्वाे क्तिसंह के समान गज�ना कर रहे हैं। ( उनके चलने और गज�ने से) दिदशाओं के हाथी निर्वाचशिलत होकर क्तिचंग्घाड़ रहे हैं॥5॥

छंद :* शिचक्करहिहं दिदग्गज डोल मनिह निगरिर लोल सागर खरभरे।

मन हरष सभ गंधब� सुर मुनिन नाग हिकंनर दुख टरे॥  कटकटहिहं मक� ट निबकट भट बहु कोदिट कोदिटन्ह धार्वाहीं।

जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गार्वाहीं॥1॥भावार्थ�:- दिदशाओं के हाथी क्तिचंग्घाड़ने लगे, पृथ्र्वाी डोलने लगी, पर्वा�त चंचल हो गए ( काँपनेलगे) और समुद्र खलबला उठे। गंधर्वा�, देर्वाता, मुनिन, नाग, निकन्नर सब के सब मन में हर्षिषंतहुए' निक (अब) हमारे दुःख टल गए। अनेकों करोड़ भयानक र्वाानर योtा कटकटा रहे हैं और

करोड़ों ही दौड़ रहे हैं। ' प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्री रामचंद्रजी की जय हो' ऐसा पुकारते हुए र्वाे उनके गुणसमूहों को गा रहे हैं॥1॥

* सनिह सक न भार उदार अनिहपनित बार बारहिहं मोहई। गह दसन पुनिन पुनिन कमठ पृष्ठ कठोर सो निकमिम सोहई॥ 

रघुबीर रुशिचर प्रयान प्रच्छिस्थनित जानिन परम सुहार्वानी। जनु कमठ खप�र सप�राज सो शिलखत अनिबचल पार्वानी॥2॥

भावार्थ�:- उदार ( परम श्रेष्ठ एर्वां महान्‌) सप�राज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, र्वाेबार- बार मोनिहत हो जाते ( घबड़ा जाते) हैं और पुनः- पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतों से

पकड़ते हैं। ऐसा करते ( अथा�त्‌बार- बार दाँतों को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खींचते हुए) र्वाे कैसे शोभा दे रहे हैं मानो श्री रामचंद्रजी की सुंदर प्रस्थान यात्रा को परम सुहार्वानी जानकर उसकी अचल पनिर्वात्र कथा को सप�राज शेषजी कच्छप की पीठ पर शिलख

रहे हों॥2॥ दोहा :

* एनिह निबमिध जाइ कृपानिनमिध उतरे सागर तीर। जहँ तहँ लागे खान फल भालु निबपुल कनिप बीर॥35॥

भावार्थ�:- इस प्रकार कृपानिनधान श्री रामजी समुद्र तट पर जा उतरे। अनेकों रीछ- र्वाानर र्वाीरजहाँ- तहाँ फल खाने लगे॥35॥

चौपाई :

Page 27: Sunderkand Hindi Meaning

* उहाँ निनसाचर रहहिहं ससंका। जब तें जारिर गयउ कनिप लंका॥ निनज निनज गृहँ सब करहिहं निबचारा। नहिहं निनशिसचर कुल केर उबारा।1॥

भावार्थ�:- र्वाहाँ ( लंका में) जब से हनुमान्‌जी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने- अपने घरों में सब निर्वाचार करते हैं निक अब राक्षस कुल की रक्षा ( का कोई

उपाय) नहीं है॥1॥* जासु दूत बल बरनिन न जाई। तेनिह आएँ पुर कर्वान भलाई॥

दूनितन्ह सन सुनिन पुरजन बानी। मंदोदरी अमिधक अकुलानी॥2॥भावार्थ�:- जिजसके दूत का बल र्वाण�न नहीं निकया जा सकता, उसके स्र्वायं नगर में आने पर

कौन भलाई है ( हम लोगों की बड़ी बुरी दशा होगी)? दूनितयों से नगरर्वााशिसयों के र्वाचन सुनकर मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई॥2॥

* रहशिस जोरिर कर पनित पग लागी। बोली बचन नीनित रस पागी॥ कंत करष हरिर सन परिरहरहू। मोर कहा अनित निहत निहयँ धरहू॥3॥

भावार्थ�:- र्वाह एकांत में हाथ जोड़कर पनित (रार्वाण) के चरणों लगी और नीनितरस में पगी हुई र्वााणी बोली- हे निप्रयतम! श्री हरिर से निर्वारोध छोड़ दीजिजए। मेरे कहने को अत्यंत ही निहतकर

जानकर हृदय में धारण कीजिजए॥3॥* समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रर्वाहिहं गभ� रजनीचर घरनी॥

तासु नारिर निनज सशिचर्वा बोलाई। पठर्वाहु कंत जो चहहु भलाई॥4॥भावार्थ�:- जिजनके दूत की करनी का निर्वाचार करते ही ( स्मरण आते ही) राक्षसों की स्त्रिस्त्रयों के

गभ� निगर जाते हैं, हे प्यारे स्र्वाामी! यदिद भला चाहते हैं, तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिजए॥4॥

दोहा :* तर्वा कुल कमल निबनिपन दुखदाई। सीता सीत निनसा सम आई॥

सुनहु नाथ सीता निबनु दीन्हें। निहत न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥5॥भावार्थ�:- सीता आपके कुल रूपी कमलों के र्वान को दुःख देने र्वााली जाडे़ की रानित्र के समान

आई है। हे नाथ। सुनिनए, सीता को दिदए (लौटाए) निबना शमु्भ और ब्रह्मा के निकए भी आपका भला नहीं हो सकता॥5॥ दोहा :

* राम बान अनिह गन सरिरस निनकर निनसाचर भेक। जब लनिग ग्रसत न तब लनिग जतनु करहु तजिज टेक॥36॥

भावार्थ�:- श्री रामजी के बाण सपv के समूह के समान हैं और राक्षसों के समूह मेंढक के समान। जब तक र्वाे इन्हें ग्रस नहीं लेते ( निनगल नहीं जाते) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर

लीजिजए॥36॥ चौपाई :

* श्रर्वान सुनी सठ ता करिर बानी। निबहसा जगत निबदिदत अणिभमानी॥ सभय सुभाउ नारिर कर साचा। मंगल महँु भय मन अनित काचा॥1॥

भावार्थ�:- मूख� और जगत प्रशिसt अणिभमानी रार्वाण कानों से उसकी र्वााणी सुनकर खूब हँसा( और बोला-) स्त्रिस्त्रयों का स्र्वाभार्वा सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। मंगल में भी भय करती

हो। तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है॥1॥* जौं आर्वाइ मक� ट कटकाई। जिजअहिहं निबचारे निनशिसचर खाई॥

कंपहिहं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारिर सभीत बनिड़ हासा॥2॥

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भावार्थ�:- यदिद र्वाानरों की सेना आर्वाेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीर्वान निनर्वाा�ह करेंगे। लोकपाल भी जिजसके डर से काँपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हँसी की बात

है॥2॥* अस कनिह निबहशिस तानिह उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अमिधकाई॥

फमंदोदरी हृदयँ कर क्तिचंता। भयउ कंत पर निबमिध निबपरीता॥3॥भावार्थ�:- रार्वाण ने ऐसा कहकर हँसकर उसे हृदय से लगा शिलया और ममता बढ़ाकर (अमिधक

स्नेह दशा�कर) र्वाह सभा में चला गया। मंदोदरी हृदय में क्तिचंता करने लगी निक पनित पर निर्वाधाता प्रनितकूल हो गए॥3॥

* बैठेउ सभाँ खबरिर अशिस पाई। क्तिसंधु पार सेना सब आई॥ बूझेशिस सशिचर्वा उशिचत मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करिर रहहू॥4॥

भावार्थ�:- ज्यों ही र्वाह सभा में जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई निक शतु्र की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है, उसने मंनित्रयों से पूछा निक उशिचत सलाह कनिहए ( अब क्या करना

चानिहए?) । तब रे्वा सब हँसे और बोले निक चुप निकए रनिहए ( इसमें सलाह की कौन सी बातहै?)॥4॥* जिजतेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केनिह लेखे माहीं॥5॥भावार्थ�:- आपने देर्वाताओं और राक्षसों को जीत शिलया, तब तो कुछ श्रम ही नहीं हुआ। निफर

मनुष्य और र्वाानर निकस निगनती में हैं?॥5॥ दोहा :

* सशिचर्वा बैद गुर तीनिन जौं निप्रय बोलहिहं भय आस राज धम� तन तीनिन कर होइ बेनिगहीं नास॥37॥

भावार्थ�:-मंत्री, र्वाैद्य और गुरु- ये तीन यदिद ( अप्रसन्नता के) भय या ( लाभ की) आशा से( निहत की बात न कहकर) निप्रय बोलते हैं ( ठकुर सुहाती कहने लगते हैं), तो (क्रमशः) राज्य,

शरीर और धम�- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है॥37॥ चौपाई :

* सोइ रार्वान कहँु बनी सहाई। अस्तुनित करहिहं सुनाइ सुनाई॥ अर्वासर जानिन निबभीषनु आर्वाा। भ्राता चरन सीसु तेहिहं नार्वाा॥1॥

भावार्थ�:- रार्वाण के शिलए भी र्वाही सहायता (संयोग) आ बनी है। मंत्री उसे सुना- सुनाकर ( मुँहपर) स्तुनित करते हैं। ( इसी समय) अर्वासर जानकर निर्वाभीषणजी आए। उन्होंने बडे़ भाई के

चरणों में शिसर नर्वााया॥1॥* पुनिन शिसरु नाइ बैठ निनज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥

जौ कृपाल पूँशिछहु मोनिह बाता। मनित अनुरूप कहउँ निहत ताता॥2॥भावार्थ�:- निफर से शिसर नर्वााकर अपने आसन पर बैठ गए और आज्ञा पाकर ये र्वाचन बोले- हे

कृपाल जब आपने मुझसे बात (राय) पूछी ही है, तो हे तात! मैं अपनी बुजिt के अनुसार आपके निहत की बात कहता हँू-॥2॥

* जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमनित सुभ गनित सुख नाना॥ सो परनारिर शिललार गोसाईं। तजउ चउशिथ के चंद निक नाईं॥3॥

भावार्थ�:- जो मनुष्य अपना कल्याण, संुदर यश, सुबुजिt, शुभ गनित और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, र्वाह हे स्र्वाामी! परस्त्री के ललाट को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे ( अथा�त्‌जैसे

लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)॥3॥* चौदह भुर्वान एक पनित होई। भूत द्रोह नितष्टइ नहिहं सोई॥

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥4॥

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भावार्थ�:- चौदहों भुर्वानों का एक ही स्र्वाामी हो, र्वाह भी जीर्वाों से रै्वार करके ठहर नहीं सकता( नष्ट हो जाता है) जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों नहो, तो भी कोई भला नहीं कहता॥4॥

दोहा :* काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।

सब परिरहरिर रघुबीरनिह भजहु भजहिहं जेनिह संत॥38॥भावार्थ�:- हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर

श्री रामचंद्रजी को भजिजए, जिजन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं॥38॥ चौपाई :

* तात राम नहिहं नर भूपाला। भुर्वानेस्र्वार कालहु कर काला॥ ब्रह्म अनामय अज भगर्वांता। ब्यापक अजिजत अनादिद अनंता॥1॥

भावार्थ�:- हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। रे्वा समस्त लोकों के स्र्वाामी और काल के भी काल हैं। र्वाे ( संपूण� ऐश्वय�, यश, श्री, धम�, र्वाैराग्य एरं्वा ज्ञान के भंडार) भगर्वाान्‌हैं, र्वाे

निनरामय (निर्वाकाररनिहत), अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादिद और अनंत ब्रह्म हैं॥1॥* गो निद्वज धेनु देर्वा निहतकारी। कृपा क्तिसंधु मानुष तनुधारी॥

जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धम� रच्छक सुनु भ्राता॥2॥भावार्थ�:- उन कृपा के समुद्र भगर्वाान्‌ने पृथ्र्वाी, ब्राह्मण, गो और देर्वाताओं का निहत करने के

शिलए ही मनुष्य शरीर धारण निकया है। हे भाई! सुनिनए, र्वाे सेर्वाकों को आनंद देने र्वााले, दुष्टों के समूह का नाश करने र्वााले और रे्वाद तथा धम� की रक्षा करने र्वााले हैं॥2॥

* तानिह बयरु तजिज नाइअ माथा। प्रनतारनित भंजन रघुनाथा॥ देहु नाथ प्रभु कहँु बैदेही। भजहु राम निबनु हेतु सनेही॥3॥

भावार्थ�:- र्वाैर त्यागकर उन्हें मस्तक नर्वााइए। र्वाे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने र्वााले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वा�श्वर) को जानकीजी दे दीजिजए और निबना ही कारण स्नेह करने र्वााले श्री रामजी को भजिजए॥3॥ दोहा :

* सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। निबस्र्वा द्रोह कृत अघ जेनिह लागा॥ जासु नाम त्रय ताप नसार्वान। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जिजयँ रार्वान॥4॥

भावार्थ�:- जिजसे संपूण� जगत्‌से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते। जिजनका नाम तीनों तापों का नाश करने र्वााला है, र्वाे ही प्रभु (भगर्वाान्‌) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रार्वाण! हृदय में यह समझ लीजिजए॥4॥

दोहा :* बार बार पद लागउँ निबनय करउँ दससीस।

परिरहरिर मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥39 क॥भावार्थ�:- हे दशशीश! मैं बार- बार आपके चरणों लगता हँू और निर्वानती करता हँू निक मान,

मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपनित श्री रामजी का भजन कीजिजए॥39 (क)॥* मुनिन पुलस्तिस्त निनज शिसष्य सन कनिह पठई यह बात।

तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअर्वासरु तात॥39 ख॥भावार्थ�:- मुनिन पुलस्त्यजी ने अपने शिशष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! संुदर

अर्वासर पाकर मैंने तुरंत ही र्वाह बात प्रभु (आप) से कह दी॥39 (ख)॥ चौपाई :

* माल्यर्वांत अनित सशिचर्वा सयाना। तासु बचन सुनिन अनित सुख माना॥ तात अनुज तर्वा नीनित निबभूषन। सो उर धरहु जो कहत निबभीषन॥1॥

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भावार्थ�:- माल्यर्वाान्‌नाम का एक बहुत ही बुजिtमान मंत्री था। उसने उन (निर्वाभीषण) के र्वाचन सुनकर बहुत सुख माना ( और कहा-) हे तात! आपके छोटे भाई नीनित निर्वाभूषण ( नीनित को

भूषण रूप में धारण करने र्वााले अथा�त्‌नीनितमान्‌) हैं। निर्वाभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे हृदय में धारण कर लीजिजए॥1॥

* रिरपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरिर न करहु इहाँ हइ कोऊ॥ माल्यर्वांत गह गयउ बहोरी। कहइ निबभीषनु पुनिन कर जोरी॥2॥

भावार्थ�:-( रार्वान ने कहा-) ये दोनों मूख� शतु्र की मनिहमा बखान रहे हैं। यहाँ कोई है? इन्हें दूर करो न! तब माल्यर्वाान्‌तो घर लौट गया और निर्वाभीषणजी हाथ जोड़कर निफर कहने लगे-॥2॥

* सुमनित कुमनित सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निनगम अस कहहीं॥ जहाँ सुमनित तहँ संपनित नाना। जहाँ कुमनित तहँ निबपनित निनदाना॥3॥

भावार्थ�:- हे नाथ! पुराण और रे्वाद ऐसा कहते हैं निक सुबुजिt ( अच्छी बुजिt) और कुबुजिt( खोटी बुजिt) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुजिt है, र्वाहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ ( सुख

की च्छिस्थनित) रहती हैं और जहाँ कुबुजिt है र्वाहाँ परिरणाम में निर्वापणिw (दुःख) रहती है॥3॥* तर्वा उर कुमनित बसी निबपरीता। निहत अननिहत मानहु रिरपु प्रीता॥

कालरानित निनशिसचर कुल केरी। तेनिह सीता पर प्रीनित घनेरी॥4॥भावार्थ�:- आपके हृदय में उलटी बुजिt आ बसी है। इसी से आप निहत को अनिहत और शतु्र को

मिमत्र मान रहे हैं। जो राक्षस कुल के शिलए कालरानित्र ( के समान) हैं, उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीनित है॥4॥ दोहा :

* तात चरन गनिह मागउँ राखहु मोर दुलार। सीता देहु राम कहुँ अनिहत न होइ तुम्हारा॥40॥

भावार्थ�:- हे तात! मैं चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हँू ( निर्वानती करता हँू) । निक आप मेरा दुलार रखिखए ( मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वा�क स्र्वाीकार कीजिजए) श्री रामजी को

सीताजी दे दीजिजए, जिजसमें आपका अनिहत न हो॥40॥ चौपाई :

* बुध पुरान श्रुनित संमत बानी। कही निबभीषन नीनित बखानी॥ सुनत दसानन उठा रिरसाई। खल तोहिहं निनकट मृत्यु अब आई॥1॥

भावार्थ�:- निर्वाभीषण ने पंनिडतों, पुराणों और र्वाेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदिदत) र्वााणी से नीनित बखानकर कही। पर उसे सुनते ही रार्वाण क्रोमिधत होकर उठा और बोला निक रे दुष्ट! अब मृत्यु

तेरे निनकट आ गई है!॥1॥* जिजअशिस सदा सठ मोर जिजआर्वाा। रिरपु कर पच्छ मूढ़ तोनिह भार्वाा॥

कहशिस न खल अस को जग माहीं। भुज बल जानिह जिजता मैं नाहीं॥2॥भावार्थ�:- अरे मूख�! तू जीता तो है सदा मेरा जिजलाया हुआ ( अथा�त्‌मेरे ही अन्न से पल रहाहै), पर हे मूढ़! पक्ष तुझे शतु्र का ही अच्छा लगता है। अरे दुष्ट! बता न, जगत्‌में ऐसा कौन है जिजसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो?॥2॥

* मम पुर बशिस तपशिसन्ह पर प्रीती। सठ मिमलु जाइ नितन्हनिह कहु नीती॥ अस कनिह कीन्हेशिस चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिहं बारा॥3॥

भावार्थ�:- मेरे नगर में रहकर पे्रम करता है तपस्तिस्र्वायों पर। मूख�! उन्हीं से जा मिमल और उन्हीं को नीनित बता। ऐसा कहकर रार्वाण ने उन्हें लात मारी, परंतु छोटे भाई निर्वाभीषण ने ( मारने पर

भी) बार- बार उसके चरण ही पकडे़॥3॥* उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥

तुम्ह निपतु सरिरस भलेहिहं मोनिह मारा। रामु भजें निहत नाथ तुम्हारा॥4॥

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भावार्थ�:-( शिशर्वाजी कहते हैं-) हे उमा! संत की यही बड़ाई (मनिहमा) है निक र्वाे बुराई करने पर भी ( बुराई करने र्वााले की) भलाई ही करते हैं। ( निर्वाभीषणजी ने कहा-) आप मेरे निपता के

समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही निकया, परंतु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है॥4॥

* सशिचर्वा संग लै नभ पथ गयऊ। सबनिह सुनाइ कहत अस भयऊ॥5॥भावार्थ�:-( इतना कहकर) निर्वाभीषण अपने मंनित्रयों को साथ लेकर आकाश माग� में गए और

सबको सुनाकर र्वाे ऐसा कहने लगे-॥5॥ दोहा :

* रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरिर। मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनिन खोरिर॥41॥भावार्थ�:- श्री रामजी सत्य संकल्प एर्वां (सर्वा�समथ�) प्रभु हैं और ( हे रार्वाण) तुम्हारी सभा काल

के र्वाश है। अतः मैं अब श्री रघुर्वाीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना॥41॥ चौपाई :

* अस कनिह चला निबभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥ साधु अर्वाग्या तुरत भर्वाानी। कर कल्यान अखिखल कै हानी॥1॥

भावार्थ�:- ऐसा कहकर निर्वाभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए।( उनकी मृत्यु निनणिश्चत हो गई) । ( शिशर्वाजी कहते हैं-) हे भर्वाानी! साधु का अपमान तुरंत ही

संपूण� कल्याण की हानिन (नाश) कर देता है॥1॥* रार्वान जबहिहं निबभीषन त्यागा। भयउ निबभर्वा निबनु तबहिहं अभागा॥

चलेउ हरनिष रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥2॥भावार्थ�:- रार्वाण ने जिजस क्षण निर्वाभीषण को त्यागा, उसी क्षण र्वाह अभागा र्वाैभर्वा (ऐश्वय�) से

हीन हो गया। निर्वाभीषणजी हर्षिषंत होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले॥2॥

* देखिखहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेर्वाक सुखदाता॥ जे पद परशिस तरी रिरषनारी। दंडक कानन पार्वानकारी॥3॥भावार्थ�:-( र्वाे सोचते जाते थे-) मैं जाकर भगर्वाान्‌के कोमल और लाल र्वाण� के संुदर चरण

कमलों के दश�न करँूगा, जो सेर्वाकों को सुख देने र्वााले हैं, जिजन चरणों का स्पश� पाकर ऋनिष पत्नी अहल्या तर गईं और जो दंडकर्वान को पनिर्वात्र करने र्वााले हैं॥3॥

* जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए॥ हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिखहउँ तेई॥4॥

भावार्थ�:- जिजन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपटमृग के साथ पृथ्र्वाी पर ( उसे पकड़ने को) दौडे़ थे और जो चरणकमल साक्षात्‌शिशर्वाजी के हृदय रूपी सरोर्वार में निर्वाराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है निक उन्हीं को आज मैं देखँूगा॥4॥

दोहा :* जिजन्ह पायन्ह के पादुकखिन्ह भरतु रहे मन लाइ। ते पद आजु निबलोनिकहउँ इन्ह नयनखिन्ह अब जाइ॥42॥भावार्थ�:- जिजन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज मैं

उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूँगा॥42॥ चौपाई :

* ऐनिह निबमिध करत सप्रेम निबचारा। आयउ सपदिद क्तिसंदु एहिहं पारा॥ कनिपन्ह निबभीषनु आर्वात देखा। जाना कोउ रिरपु दूत निबसेषा॥1॥

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भावार्थ�:- इस प्रकार पे्रमसनिहत निर्वाचार करते हुए र्वाे शीघ्र ही समुद्र के इस पार ( जिजधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी) आ गए। र्वाानरों ने निर्वाभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना निक शतु्र

का कोई खास दूत है॥1॥* तानिह राखिख कपीस पहिहं आए। समाचार सब तानिह सुनाए॥

कह सुग्रीर्वा सुनहु रघुराई। आर्वाा मिमलन दसानन भाई॥2॥भावार्थ�:- उन्हें ( पहरे पर) ठहराकर र्वाे सुग्रीर्वा के पास आए और उनको सब समाचार कह

सुनाए। सुग्रीर्वा ने ( श्री रामजी के पास जाकर) कहा- हे रघुनाथजी! सुनिनए, रार्वाण का भाई( आप से) मिमलने आया है॥2॥* कह प्रभु सखा बूजिझए काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥

जानिन न जाइ निनसाचर माया। कामरूप केनिह कारन आया॥3॥भावार्थ�:- प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मिमत्र! तुम क्या समझते हो ( तुम्हारी क्या राय है)?

र्वाानरराज सुग्रीर्वा ने कहा- हे महाराज! सुनिनए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने र्वााला (छली) न जाने निकस कारण आया है॥3॥

* भेद हमार लेन सठ आर्वाा। राखिखअ बाँमिध मोनिह अस भार्वाा॥ सखा नीनित तुम्ह नीनिक निबचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥4॥

भावार्थ�:-( जान पड़ता है) यह मूख� हमारा भेद लेने आया है, इसशिलए मुझे तो यही अच्छा लगता है निक इसे बाँध रखा जाए। ( श्री रामजी ने कहा-) हे मिमत्र! तुमने नीनित तो अच्छी

निर्वाचारी, परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!॥4॥* सुनिन प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगर्वााना॥5॥भावार्थ�:- प्रभु के र्वाचन सुनकर हनुमान्‌जी हर्षिषंत हुए ( और मन ही मन कहने लगे निक)

भगर्वाान्‌कैसे शरणागतर्वात्सल ( शरण में आए हुए पर निपता की भाँनित पे्रम करने र्वााले) हैं॥5॥ दोहा :

* सरनागत कहुँ जे तजहिहं निनज अननिहत अनुमानिन। ते नर पार्वाँर पापमय नितन्हनिह निबलोकत हानिन॥43॥भावार्थ�:-( श्री रामजी निफर बोले-) जो मनुष्य अपने अनिहत का अनुमान करके शरण में आए

हुए का त्याग कर देते हैं, र्वाे पामर (कु्षद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानिन है ( पाप लगता है)॥43॥ चौपाई :

* कोदिट निबप्र बध लागहिहं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिहं ताहू॥ सनमुख होइ जीर्वा मोनिह जबहीं। जन्म कोदिट अघ नासहिहं तबहीं॥1॥

भावार्थ�:- जिजसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीर्वा ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥1॥

* पापर्वांत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेनिह भार्वा न काऊ॥ जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आर्वा निक सोई॥2॥

भावार्थ�:- पापी का यह सहज स्र्वाभार्वा होता है निक मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदिद र्वाह ( रार्वाण का भाई) निनश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या र्वाह मेरे सम्मुख आ सकता था?॥

2॥* निनम�ल मन जन सो मोनिह पार्वाा। मोनिह कपट छल शिछद्र न भार्वाा॥

भेद लेन पठर्वाा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानिन कपीसा॥3॥भावार्थ�:- जो मनुष्य निनम�ल मन का होता है, र्वाही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल- शिछद्र

नहीं सुहाते। यदिद उसे रार्वाण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीर्वा! अपने को कुछ भी भय या हानिन नहीं है॥3॥

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* जग महँु सखा निनसाचर जेते। लशिछमनु हनइ निनमिमष महँु तेते॥ जौं सभीत आर्वाा सरनाईं। रखिखहउँ तानिह प्रान की नाईं॥4॥

भावार्थ�:- क्योंनिक हे सखे! जगत में जिजतने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदिद र्वाह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह

रखूँगा॥4॥ दोहा :

* उभय भाँनित तेनिह आनहु हँशिस कह कृपानिनकेत। जय कृपाल कनिह कनिप चले अंगद हनू समेत॥44॥

भावार्थ�:- कृपा के धाम श्री रामजी ने हँसकर कहा- दोनों ही च्छिस्थनितयों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान्‌सनिहत सुग्रीर्वाजी ' कपालु श्री रामजी की जय हो' कहते हुए चले॥4॥ चौपाई :

* सादर तेनिह आगें करिर बानर। चले जहाँ रघुपनित करुनाकर॥ दूरिरनिह ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥1॥

भावार्थ�:- निर्वाभीषणजी को आदर सनिहत आगे करके र्वाानर निफर र्वाहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनंद का दान देने र्वााले ( अत्यंत सुखद) दोनों भाइयों को

निर्वाभीषणजी ने दूर ही से देखा॥1॥* बहुरिर राम छनिबधाम निबलोकी। रहेउ ठटुनिक एकटक पल रोकी॥

भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥भावार्थ�:- निफर शोभा के धाम श्री रामजी को देखकर र्वाे पलक (मारना) रोककर दिठठककर( स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए। भगर्वाान्‌की निर्वाशाल भुजाएँ हैं लाल कमल के

समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने र्वााला साँर्वाला शरीर है॥2॥* सघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमिमत मदन मन मोहा॥

नयन नीर पुलनिकत अनित गाता। मन धरिर धीर कही मृदु बाता॥3॥भावार्थ�:- क्तिसंह के से कंधे हैं, निर्वाशाल र्वाक्षःस्थल ( चौड़ी छाती) अत्यंत शोभा दे रहा है।

असंख्य कामदेर्वाों के मन को मोनिहत करने र्वााला मुख है। भगर्वाान्‌के स्र्वारूप को देखकर निर्वाभीषणजी के नेत्रों में ( पे्रमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलनिकत हो गया।

निफर मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल र्वाचन कहे॥3॥* नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निनशिसचर बंस जनम सुरत्राता॥

सहज पापनिप्रय तामस देहा। जथा उलूकनिह तम पर नेहा॥4॥भावार्थ�:- हे नाथ! मैं दशमुख रार्वाण का भाई हूँ। हे देर्वाताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्र्वाभार्वा से ही मुझे पाप निप्रय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर

सहज स्नेह होता है॥4॥ दोहा :

* श्रर्वान सुजसु सुनिन आयउँ प्रभु भंजन भर्वा भीर। त्रानिह त्रानिह आरनित हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥

भावार्थ�:- मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हँू निक प्रभु भर्वा (जन्म-मरण) के भय का नाश करने र्वााले हैं। हे दुखिखयों के दुःख दूर करने र्वााले और शरणागत को सुख देने र्वााले श्री

रघुर्वाीर! मेरी रक्षा कीजिजए, रक्षा कीजिजए॥45॥ चौपाई :

* अस कनिह करत दंडर्वात देखा। तुरत उठे प्रभु हरष निबसेषा॥ दीन बचन सुनिन प्रभु मन भार्वाा। भुज निबसाल गनिह हृदयँ लगार्वाा॥1॥

Page 34: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:- प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडर्वात्‌करते देखा तो र्वाे अत्यंत हर्षिषंत होकर तुरंत उठे। निर्वाभीषणजी के दीन र्वाचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होंने अपनी निर्वाशाल

भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा शिलया॥1॥* अनुज सनिहत मिमशिल दिढग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥

कहु लंकेस सनिहत परिरर्वाारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥भावार्थ�:- छोटे भाई लक्ष्मणजी सनिहत गले मिमलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री रामजी

भSों के भय को हरने र्वााले र्वाचन बोले- हे लंकेश! परिरर्वाार सनिहत अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निनर्वाास बुरी जगह पर है॥2॥

* खल मंडली बसहु दिदनु राती। सखा धरम निनबहइ केनिह भाँती॥ मैं जानउँ तुम्हारिर सब रीती। अनित नय निनपुन न भार्वा अनीती॥3॥भावार्थ�:-दिदन- रात दुष्टों की मंडली में बसते हो। ( ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धम� निकस

प्रकार निनभता है? मैं तुम्हारी सब रीनित (आचार-व्यर्वाहार) जानता हूँ। तुम अत्यंत नीनितनिनपुणहो, तुम्हें अनीनित नहीं सुहाती॥3॥* बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनिन देइ निबधाता॥

अब पद देखिख कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीखिन्ह जानिन जन दाया॥4॥भावार्थ�:- हे तात! नरक में रहना र्वारन्‌अच्छा है, परंतु निर्वाधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे।( निर्वाभीषणजी ने कहा-) हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दश�न कर कुशल से हँू, जो

आपने अपना सेर्वाक जानकर मुझ पर दया की है॥4॥ दोहा :

* तब लनिग कुसल न जीर्वा कहँु सपनेहुँ मन निबश्राम। जब लनिग भजत न राम कहँु सोक धाम तजिज काम॥46॥

भावार्थ�:- तब तक जीर्वा की कुशल नहीं और न स्र्वाप्न में भी उसके मन को शांनित है, जब तक र्वाह शोक के घर काम (निर्वाषय-कामना) को छोड़कर श्री रामजी को नहीं भजता॥46॥

चौपाई :* तब लनिग हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥

जब लनिग उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कदिट भाथा॥1॥भावार्थ�:-लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदिद अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक निक धनुष- बाण और कमर में तरकस धारण निकए हुए श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते॥1॥* ममता तरुन तमी अँमिधआरी। राग दे्वष उलूक सुखकारी॥

तब लनिग बसनित जीर्वा मन माहीं। जब लनिग प्रभु प्रताप रनिब नाहीं॥2॥भावार्थ�:- ममता पूण� अँधेरी रात है, जो राग- दे्वष रूपी उल्लुओं को सुख देने र्वााली है। र्वाह( ममता रूपी रानित्र) तभी तक जीर्वा के मन में बसती है, जब तक प्रभु (आप) का प्रताप रूपी

सूय� उदय नहीं होता॥2॥* अब मैं कुसल मिमटे भय भारे। देखिख राम पद कमल तुम्हारे॥

तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। तानिह न ब्याप नित्रनिबध भर्वा सूला॥3॥भावार्थ�:- हे श्री रामजी! आपके चरणारनिर्वान्द के दश�न कर अब मैं कुशल से हँू, मेरे भारी भय

मिमट गए। हे कृपालु! आप जिजस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भर्वाशूल(आध्यास्त्रित्मक, आमिधदैनिर्वाक और आमिधभौनितक ताप) नहीं व्यापते॥3॥* मैं निनशिसचर अनित अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिहं काऊ॥

जासु रूप मुनिन ध्यान न आर्वाा। तेहिहं प्रभु हरनिष हृदयँ मोनिह लार्वाा॥4॥

Page 35: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:- मैं अत्यंत नीच स्र्वाभार्वा का राक्षस हँू। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं निकया। जिजनका रूप मुनिनयों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्र्वायं हर्षिषंत होकर मुझे हृदय से लगा

शिलया॥4॥ दोहा :

* अहोभाग्य मम अमिमत अनित राम कृपा सुख पुंज। देखेउँ नयन निबरंशिच शिसर्वा सेब्य जुगल पद कंज॥47॥

भावार्थ�:- हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिशर्वाजी के द्वारा सेनिर्वात युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा॥47॥

चौपाई :* सुनहु सखा निनज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंनिड संभु निगरिरजाऊ॥

जौं नर होइ चराचर द्रोही। आर्वाै सभय सरन तनिक मोही॥1॥भावार्थ�:-( श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्र्वाभार्वा कहता हूँ, जिजसेकाकभुशुच्छिण्ड, शिशर्वाजी और पार्वा�तीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूण�) जड़- चेतन जगत्‌

का द्रोही हो, यदिद र्वाह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥1॥* तजिज मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेनिह साधु समाना॥

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भर्वान सुहृद परिरर्वाारा॥2॥भावार्थ�:- और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल- कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु

के समान कर देता हँू। माता, निपता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मिमत्र और परिरर्वाार॥2॥* सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मननिह बाँध बरिर डोरी॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिहं मन माहीं॥3॥भावार्थ�:- इन सबके ममत्र्वा रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके

द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। ( सारे सांसारिरक संबंधों का कें द्र मुझे बना लेता है), जो समदश¡ है, जिजसे कुछ इच्छा नहीं है और जिजसके मन में हष�, शोक और भय नहीं है॥3॥

* अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥ तुम्ह सारिरखे संत निप्रय मोरें। धरउँ देह नहिहं आन निनहोरें॥4॥

भावार्थ�:- ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे संत ही मुझे निप्रय हैं। मैं और निकसी के निनहोरे से (कृतज्ञतार्वाश) देह धारण नहीं

करता॥4॥ दोहा :

* सगुन उपासक परनिहत निनरत नीनित दृढ़ नेम। ते नर प्रान समान मम जिजन्ह कें निद्वज पद पे्रम॥48॥भावार्थ�:- जो सगुण (साकार) भगर्वाान्‌के उपासक हैं, दूसरे के निहत में लगे रहते हैं, नीनित

और निनयमों में दृढ़ हैं और जिजन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, र्वाे मनुष्य मेरे प्राणों के समानहैं॥48॥

चौपाई :* सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अनितसय निप्रय मोरें॥।

राम बचन सुनिन बानर जूथा। सकल कहहिहं जय कृपा बरूथा॥1॥भावार्थ�:- हे लंकापनित! सुनो, तुम्हारे अंदर उपयु�S सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही

निप्रय हो। श्री रामजी के र्वाचन सुनकर सब र्वाानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो॥1॥

Page 36: Sunderkand Hindi Meaning

* सुनत निबभीषनु प्रभु कै बानी। नहिहं अघात श्रर्वानामृत जानी॥ पद अंबुज गनिह बारहिहं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

भावार्थ�:- प्रभु की र्वााणी सुनते हैं और उसे कानों के शिलए अमृत जानकर निर्वाभीषणजी अघाते नहीं हैं। र्वाे बार- बार श्री रामजी के चरण कमलों को पकड़ते हैं अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है॥2॥

* सुनहु देर्वा सचराचर स्र्वाामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥ उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीनित सरिरत सो बही॥3॥

भावार्थ�:-( निर्वाभीषणजी ने कहा-) हे देर्वा! हे चराचर जगत्‌के स्र्वाामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने र्वााले! सुनिनए, मेरे हृदय में पहले कुछ र्वाासना थी। र्वाह प्रभु के चरणों की प्रीनित रूपी नदी में बह गई॥3॥

* अब कृपाल निनज भगनित पार्वानी। देहु सदा शिसर्वा मन भार्वानी॥ एर्वामस्तु कनिह प्रभु रनधीरा। मागा तुरत क्तिसंधु कर नीरा॥4॥

भावार्थ�:- अब तो हे कृपालु! शिशर्वाजी के मन को सदैर्वा निप्रय लगने र्वााली अपनी पनिर्वात्र भशिS मुझे दीजिजए। 'एर्वामस्तु' ( ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरंत ही समुद्र का जल माँगा॥4॥

* जदनिप सखा तर्वा इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥ अस कनिह राम नितलक तेनिह सारा। सुमन बृमिष्ट नभ भई अपारा॥5॥

भावार्थ�:-( और कहा-) हे सखा! यद्यनिप तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत्‌में मेरा दश�न अमोघ है ( र्वाह निनष्फल नहीं जाता) । ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनको राजनितलक कर दिदया।

आकाश से पुष्पों की अपार रृ्वामिष्ट हुई॥5॥ दोहा :

* रार्वान क्रोध अनल निनज स्र्वाास समीर प्रचंड। जरत निबभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥49 क॥

भावार्थ�:- श्री रामजी ने रार्वाण की क्रोध रूपी अखिग्न में, जो अपनी ( निर्वाभीषण की) श्वास(र्वाचन) रूपी पर्वान से प्रचंड हो रही थी, जलते हुए निर्वाभीषण को बचा शिलया और उसे अखंड

राज्य दिदया॥49 (क)॥* जो संपनित शिसर्वा रार्वाननिह दीखिन्ह दिदएँ दस माथ।

सोइ संपदा निबभीषननिह सकुशिच दीखिन्ह रघुनाथ॥49 ख॥भावार्थ�:- शिशर्वाजी ने जो संपणिw रार्वाण को दसों शिसरों की बशिल देने पर दी थी, र्वाही संपणिw श्री

रघुनाथजी ने निर्वाभीषण को बहुत सकुचते हुए दी॥49 (ख)॥ चौपाई :

* अस प्रभु छानिड़ भजहिहं जे आना। ते नर पसु निबनु पँूछ निबषाना॥ निनज जन जानिन तानिह अपनार्वाा। प्रभु सुभार्वा कनिप कुल मन भार्वाा॥1॥

भावार्थ�:- ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, र्वाे निबना सींग-पँूछ के पशु हैं। अपना सेर्वाक जानकर निर्वाभीषण को श्री रामजी ने अपना शिलया। प्रभु का स्र्वाभार्वा

र्वाानरकुल के मन को (बहुत) भाया॥1॥* पुनिन सब�ग्य सब� उर बासी। सब�रूप सब रनिहत उदासी॥

बोले बचन नीनित प्रनितपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक॥2॥भावार्थ�:- निफर सब कुछ जानने र्वााले, सबके हृदय में बसने र्वााले, सर्वा�रूप ( सब रूपों मेंप्रकट), सबसे रनिहत, उदासीन, कारण से ( भSों पर कृपा करने के शिलए) मनुष्य बने हुए तथा

राक्षसों के कुल का नाश करने र्वााले श्री रामजी नीनित की रक्षा करने र्वााले र्वाचन बोले-॥2॥

Page 37: Sunderkand Hindi Meaning

सुनु कपीस लंकापनित बीरा। केनिह निबमिध तरिरअ जलमिध गंभीरा॥ संकुल मकर उरग झष जाती। अनित अगाध दुस्तर सब भाँनित॥3॥

भावार्थ�:- हे र्वाीर र्वाानरराज सुग्रीर्वा और लंकापनित निर्वाभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को निकस प्रकार पार निकया जाए? अनेक जानित के मगर, साँप और मछशिलयों से भरा हुआ यह अत्यंत अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कदिठन है॥3॥

* कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोदिट क्तिसंधु सोषक तर्वा सायक॥ जद्यनिप तदनिप नीनित अशिस गाई। निबनय करिरअ सागर सन जाई॥4॥

भावार्थ�:- निर्वाभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिनए, यद्यनिप आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखने र्वााला है ( सोख सकता है), तथानिप नीनित ऐसी कही गई है ( उशिचत यह

होगा) निक (पहले) जाकर समुद्र से प्राथ�ना की जाए॥4॥ दोहा :

* प्रभु तुम्हार कुलगुर जलमिध कनिहनिह उपाय निबचारिर॥ निबनु प्रयास सागर तरिरनिह सकल भालु कनिप धारिर॥50॥

भावार्थ�:- हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बडे़ (पूर्वा�ज) हैं, र्वाे निर्वाचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ और र्वाानरों की सारी सेना निबना ही परिरश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥50॥

चौपाई :* सखा कही तुम्ह नीनित उपाई। करिरअ दैर्वा जौं होइ सहाई।

मंत्र न यह लशिछमन मन भार्वाा। राम बचन सुनिन अनित दुख पार्वाा॥1॥भावार्थ�:-( श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही निकया जाए, यदिद

दैर्वा सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्री रामजी के र्वाचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥1॥

* नाथ दैर्वा कर कर्वान भरोसा। सोनिषअ क्तिसंधु करिरअ मन रोसा॥ कादर मन कहँु एक अधारा। दैर्वा दैर्वा आलसी पुकारा॥2॥

भावार्थ�:-( लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैर्वा का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिजए ( लेआइए) और समुद्र को सुखा डाशिलए। यह दैर्वा तो कायर के मन का एक आधार ( तसल्ली देने

का उपाय) है। आलसी लोग ही दैर्वा- दैर्वा पुकारा करते हैं॥2॥* सुनत निबहशिस बोले रघुबीरा। ऐसेहिहं करब धरहु मन धीरा॥

अस कनिह प्रभु अनुजनिह समुझाई। क्तिसंधु समीप गए रघुराई॥3॥भावार्थ�:- यह सुनकर श्री रघुर्वाीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो। ऐसा

कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए॥3॥* प्रथम प्रनाम कीन्ह शिसरु नाई। बैठे पुनिन तट दभ� डसाई॥

जबहिहं निबभीषन प्रभु पहिहं आए। पाछें रार्वान दूत पठाए॥4॥भावार्थ�:- उन्होंने पहले शिसर नर्वााकर प्रणाम निकया। निफर निकनारे पर कुश निबछाकर बैठ गए।

इधर ज्यों ही निर्वाभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रार्वाण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥51॥

दोहा :* सकल चरिरत नितन्ह देखे धरें कपट कनिप देह।

प्रभु गुन हृदयँ सराहहिहं सरनागत पर नेह॥51॥भावार्थ�:- कपट से र्वाानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। र्वाे अपने हृदय में

प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥51॥ चौपाई :

Page 38: Sunderkand Hindi Meaning

* प्रगट बखानहिहं राम सुभाऊ। अनित सपे्रम गा निबसरिर दुराऊ॥ रिरपु के दूत कनिपन्ह तब जाने। सकल बाँमिध कपीस पहिहं आने॥1॥

भावार्थ�:- निफर र्वाे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्र्वाभार्वा की बड़ाई करने लगे उन्हें दुरार्वा ( कपट र्वाेश) भूल गया। सब र्वाानरों ने जाना निक ये शत्रु के दूत हैं और र्वाे उन

सबको बाँधकर सुग्रीर्वा के पास ले आए॥1॥* कह सुग्रीर्वा सुनहु सब बानर। अंग भंग करिर पठर्वाहु निनशिसचर॥

सुनिन सुग्रीर्वा बचन कनिप धाए। बाँमिध कटक चहु पास निफराए॥2॥भावार्थ�:- सुग्रीर्वा ने कहा- सब र्वाानरों! सुनो, राक्षसों के अंग- भंग करके भेज दो। सुग्रीर्वा के

र्वाचन सुनकर र्वाानर दौडे़। दूतों को बाँधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया॥2॥* बहु प्रकार मारन कनिप लागे। दीन पुकारत तदनिप न त्यागे॥

जो हमार हर नासा काना। तेनिह कोसलाधीस कै आना॥3॥भावार्थ�:- र्वाानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। र्वाे दीन होकर पुकारते थे, निफर भी र्वाानरों ने

उन्हें नहीं छोड़ा। ( तब दूतों ने पुकारकर कहा-) जो हमारे नाक- कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है॥ 3॥

* सुनिन लशिछमन सब निनकट बोलाए। दया लानिग हँशिस तुरत छोड़ाए॥ रार्वान कर दीजहु यह पाती। लशिछमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥

भावार्थ�:- यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निनकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिदया। ( और उनसे कहा-) रार्वाण के हाथ में यह शिचट्ठी देना

( और कहना-) हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (संदेसे) को बाँचो॥4॥ दोहा :

* कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार। सीता देइ मिमलहु न त आर्वाा कालु तुम्हार॥52॥

भावार्थ�:- निफर उस मूख� से जबानी यह मेरा उदार ( कृपा से भरा हुआ) संदेश कहना निक सीताजी को देकर उनसे ( श्री रामजी से) मिमलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो)॥

52॥ चौपाई :

* तुरत नाइ लशिछमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥ कहत राम जसु लंकाँ आए। रार्वान चरन सीस नितन्ह नाए॥1॥

भावार्थ�:- लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नर्वााकर, श्री रामजी के गुणों की कथा र्वाण�न करते हुए दूत तुरंत ही चल दिदए। श्री रामजी का यश कहते हुए र्वाे लंका में आए और उन्होंने रार्वाण

के चरणों में शिसर नर्वााए॥1॥* निबहशिस दसानन पूँछी बाता। कहशिस न सुक आपनिन कुसलाता॥

पुन कहु खबरिर निबभीषन केरी। जानिह मृत्यु आई अनित नेरी॥2॥भावार्थ�:- दशमुख रार्वाण ने हँसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता?

निफर उस निर्वाभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिजसके अत्यंत निनकट आ गई है॥2॥* करत राज लंका सठ त्यागी। होइनिह जर्वा कर कीट अभागी॥

पुनिन कहु भालु कीस कटकाई। कदिठन काल प्रेरिरत चशिल आई॥3॥भावार्थ�:- मूख� ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिदया। अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन)

बनेगा ( जौ के साथ जैसे घुन भी निपस जाता है, र्वाैसे ही नर र्वाानरों के साथ र्वाह भी माराजाएगा), निफर भालु और र्वाानरों की सेना का हाल कह, जो कदिठन काल की प्रेरणा से यहाँ

चली आई है॥3॥

Page 39: Sunderkand Hindi Meaning

* जिजन्ह के जीर्वान कर रखर्वाारा। भयउ मृदुल शिचत क्तिसंधु निबचारा॥ कहु तपशिसन्ह कै बात बहोरी। जिजन्ह के हृदयँ त्रास अनित मोरी॥4॥

भावार्थ�:- और जिजनके जीर्वान का रक्षक कोमल शिचw र्वााला बेचारा समुद्र बन गया है (अथा�त्‌) उनके और राक्षसों के बीच में यदिद समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते। निफर उन तपस्तिस्र्वायों की बात बता, जिजनके हृदय में मेरा बड़ा डर है॥4॥ दोहा :

* की भइ भेंट निक निफरिर गए श्रर्वान सुजसु सुनिन मोर। कहशिस न रिरपु दल तेज बल बहुत चनिकत शिचत तोर ॥53॥

भावार्थ�:- उनसे तेरी भेंट हुई या र्वाे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शतु्र सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा शिचw बहुत ही चनिकत ( भौंचक्का सा) हो रहा है॥53॥

चौपाई :* नाथ कृपा करिर पँूछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजिज तैसें॥

मिमला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिहं राम नितलक तेनिह सारा॥1॥भावार्थ�:-( दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, र्वाैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा

कहना मानिनए ( मेरी बात पर निर्वाश्वास कीजिजए) । जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकरमिमला, तब उसके पहँुचते ही श्री रामजी ने उसको राजनितलक कर दिदया॥1॥

दोहा :* रार्वान दूत हमनिह सुनिन काना। कनिपन्ह बाँमिध दीन्हें दुख नाना॥

श्रर्वान नाशिसका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥भावार्थ�:- हम रार्वाण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर र्वाानरों ने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिदए,

यहाँ तक निक र्वाे हमारे नाक- कान काटने लगे। श्री रामजी की शपथ दिदलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा॥2॥

* पँूशिछहु नाथ राम कटकाई। बदन कोदिट सत बरनिन न जाई॥ नाना बरन भालु कनिप धारी। निबकटानन निबसाल भयकारी॥3॥

भावार्थ�:- हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो र्वाह तो सौ करोड़ मुखों से भी र्वाण�न नहीं की जा सकती। अनेकों रंगों के भालु और र्वाानरों की सेना है, जो भयंकर मुख र्वााले,

निर्वाशाल शरीर र्वााले और भयानक हैं॥3॥* जेहिहं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कनिपन्ह महँ तेनिह बलु थोरा॥

अमिमत नाम भट कदिठन कराला। अमिमत नाग बल निबपुल निबसाला॥4॥भावार्थ�:- जिजसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो

सब र्वाानरों में थोड़ा है। असंख्य नामों र्वााले बडे़ ही कठोर और भयंकर योtा हैं। उनमें असंख्य हाशिथयों का बल है और र्वाे बडे़ ही निर्वाशाल हैं॥4॥

दोहा :* निद्वनिबद मयंद नील नल अंगद गद निबकटाशिस।

दमिधमुख केहरिर निनसठ सठ जामर्वांत बलराशिस॥54॥भावार्थ�:-निद्वनिर्वाद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, निर्वाकटास्य, दमिधमुख, केसरी, निनशठ, शठ

और जाम्बर्वाान्‌ये सभी बल की राशिश हैं॥54॥ चौपाई :

* ए कनिप सब सुग्रीर्वा समाना। इन्ह सम कोदिटन्ह गनइ को नाना॥ राम कृपाँ अतुशिलत बल नितन्हहीं। तृन समान त्रैलोकनिह गनहीं॥1॥

Page 40: Sunderkand Hindi Meaning

भावार्थ�:- ये सब र्वाानर बल में सुग्रीर्वा के समान हैं और इनके जैसे (एक- दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को निगन ही कौन सकता है। श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। र्वाे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥

* अस मैं सुना श्रर्वान दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥ नाथ कटक महँ सो कनिप नाहीं। जो न तुम्हनिह जीतै रन माहीं॥2॥

भावार्थ�:- हे दशग्रीर्वा! मैंने कानों से ऐसा सुना है निक अठारह पद्म तो अकेले र्वाानरों के सेनापनित हैं। हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई र्वाानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके॥

2॥* परम क्रोध मीजहिहं सब हाथा। आयसु पै न देहिहं रघुनाथा॥

सोषहिहं क्तिसंधु सनिहत झष ब्याला। पूरहिहं न त भरिर कुधर निबसाला॥3॥भावार्थ�:- सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते।

हम मछशिलयों और साँपों सनिहत समुद्र को सोख लेंगे। नहीं तो बडे़- बडे़ पर्वा�तों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥

* मर्दिदं गद� मिमलर्वाहिहं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिहं सब कीसा॥ गज�हिहं तज�हिहं सहज असंका। मानहँु ग्रसन चहत हहिहं लंका॥4॥

भावार्थ�:- और रार्वाण को मसलकर धूल में मिमला देंगे। सब र्वाानर ऐसे ही र्वाचन कह रहे हैं। सब सहज ही निनडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लंका को निनगल ही जाना

चाहते हैं॥4॥ दोहा :

* सहज सूर कनिप भालु सब पुनिन शिसर पर प्रभु राम। रार्वान काल कोदिट कहँु जीनित सकहिहं संग्राम॥55॥

भावार्थ�:- सब र्वाानर- भालू सहज ही शूरर्वाीर हैं निफर उनके शिसर पर प्रभु (सर्वा�श्वर) श्री रामजी हैं। हे रार्वाण! र्वाे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं॥55॥

चौपाई :* राम तेज बल बुमिध निबपुलाई। सेष सहस सत सकहिहं न गाई॥

सक सर एक सोनिष सत सागर। तर्वा भ्रातनिह पँूछेउ नय नागर॥1॥भावार्थ�:- श्री रामचंद्रजी के तेज (सामथ्य�), बल और बुजिt की अमिधकता को लाखों शेष भी

नहीं गा सकते। र्वाे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, परंतु नीनित निनपुण श्री रामजी ने ( नीनित की रक्षा के शिलए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

* तासु बचन सुनिन सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं॥ सुनत बचन निबहसा दससीसा। जौं अशिस मनित सहाय कृत कीसा॥2॥

भावार्थ�:- उनके ( आपके भाई के) र्वाचन सुनकर र्वाे ( श्री रामजी) समुद्र से राह माँग रहे हैं, उनके मन में कृपा भी है ( इसशिलए र्वाे उसे सोखते नहीं) । दूत के ये र्वाचन सुनते ही रार्वाण खूब

हँसा ( और बोला-) जब ऐसी बुजिt है, तभी तो र्वाानरों को सहायक बनाया है!॥2॥* सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई॥

मूढ़ मृषा का करशिस बड़ाई। रिरपु बल बुजिt थाह मैं पाई॥3॥भावार्थ�:- स्र्वााभानिर्वाक ही डरपोक निर्वाभीषण के र्वाचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से

मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूख�! झूठी बड़ाई क्या करता है? बस, मैंने शतु्र (राम) के बल और बुजिt की थाह पा ली॥3॥

* सशिचर्वा सभीत निबभीषन जाकें । निबजय निबभूनित कहाँ जग ताकें ॥ सुनिन खल बचन दूत रिरस बाढ़ी। समय निबचारिर पनित्रका काढ़ी॥4॥

भावार्थ�:- सुनिन खल बचन दूत रिरस बाढ़ी। समय निबचारिर पनित्रका काढ़ी॥4॥

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* रामानुज दीन्हीं यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ार्वाहु छाती॥ निबहशिस बाम कर लीन्हीं रार्वान। सशिचर्वा बोशिल सठ लाग बचार्वान॥5॥

भावार्थ�:-( और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पनित्रका दी है। हे नाथ! इसे बचर्वााकर छाती ठंडी कीजिजए। रार्वाण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से शिलया और मंत्री को बुलर्वााकर र्वाह मूख� उसे बँचाने लगा॥5॥

दोहा :* बातन्ह मननिह रिरझाइ सठ जनिन घालशिस कुल खीस।

राम निबरोध न उबरशिस सरन निबष्नु अज ईस॥56 क॥भावार्थ�:-( पनित्रका में शिलखा था-) अरे मूख�! केर्वाल बातों से ही मन को रिरझाकर अपने कुल

को नष्ट- भ्रष्ट न कर। श्री रामजी से निर्वारोध करके तू निर्वाष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥56 (क)॥

* की तजिज मान अनुज इर्वा प्रभु पद पंकज भंृग। होनिह निक राम सरानल खल कुल सनिहत पतंग॥56 ख॥

भावार्थ�:- या तो अणिभमान छोड़कर अपने छोटे भाई निर्वाभीषण की भाँनित प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथर्वाा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अखिग्न में परिरर्वाार सनिहत पहितंगा हो जा ( दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥56 (ख)॥

चौपाई :* सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबनिह सुनाई॥

भूमिम परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग निबलासा॥1॥भावार्थ�:- पनित्रका सुनते ही रार्वाण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से ( ऊपर से) मुस्कुराता

हुआ र्वाह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्र्वाी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, र्वाैसे ही यह छोटा तपस्र्वाी (लक्ष्मण) र्वााखिग्र्वालास करता है ( डींग हाँकता है)॥1॥

* कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छानिड़ प्रकृनित अणिभमानी॥ सुनहु बचन मम परिरहरिर क्रोधा। नाथ राम सन तजहु निबरोधा॥2॥

भावार्थ�:- शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अणिभमानी स्र्वाभार्वा को छोड़कर ( इस पत्र में शिलखी) सब बातों को सत्य समजिझए। क्रोध छोड़कर मेरा र्वाचन सुनिनए। हे नाथ! श्री रामजी से रै्वार त्याग दीजिजए॥2॥

* अनित कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यनिप अखिखल लोक कर राऊ॥ मिमलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिरही। उर अपराध न एकउ धरिरही॥3॥

भावार्थ�:- यद्यनिप श्री रघुर्वाीर समस्त लोकों के स्र्वाामी हैं, पर उनका स्र्वाभार्वा अत्यंत ही कोमल है। मिमलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध रे्वा हृदय में नहीं रखेंगे॥

3॥* जनकसुता रघुनाथनिह दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥

जब तेहिहं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥भावार्थ�:- जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिजए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिजए। जब

उस (दूत) ने जानकीजी को देने के शिलए कहा, तब दुष्ट रार्वाण ने उसको लात मारी॥4॥* नाइ चरन शिसरु चला सो तहाँ। कृपाक्तिसंधु रघुनायक जहाँ॥

करिर प्रनामु निनज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनिन गनित पाई॥5॥भावार्थ�:- र्वाह भी ( निर्वाभीषण की भाँनित) चरणों में शिसर नर्वााकर र्वाहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री

रघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गनित ( मुनिन का स्र्वारूप) पाई॥5॥

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* रिरनिष अगस्तिस्त कीं साप भर्वाानी। राछस भयउ रहा मुनिन ग्यानी॥ बंदिद राम पद बारहिहं बारा। मुनिन निनज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥

भावार्थ�:-( शिशर्वाजी कहते हैं-) हे भर्वाानी! र्वाह ज्ञानी मुनिन था, अगस्त्य ऋनिष के शाप से राक्षस हो गया था। बार- बार श्री रामजी के चरणों की र्वांदना करके र्वाह मुनिन अपने आश्रम को चला

गया॥6॥ दोहा :

* निबनय न मानत जलमिध जड़ गए तीनिन दिदन बीनित। बोले राम सकोप तब भय निबनु होइ न प्रीनित॥57॥

भावार्थ�:- इधर तीन दिदन बीत गए, हिकंतु जड़ समुद्र निर्वानय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सनिहत बोले- निबना भय के प्रीनित नहीं होती!॥57॥ चौपाई :

* लशिछमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिरमिध निबशिसख कृसानु॥ सठ सन निबनय कुदिटल सन प्रीनित। सहज कृपन सन सुंदर नीनित॥1॥

भावार्थ�:- हे लक्ष्मण! धनुष- बाण लाओ, मैं अखिग्नबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूख� सेनिर्वानय, कुदिटल के साथ प्रीनित, स्र्वााभानिर्वाक ही कंजूस से सुंदर नीनित ( उदारता का उपदेश),॥1॥* ममता रत सन ग्यान कहानी। अनित लोभी सन निबरनित बखानी॥

क्रोमिधनिह सम कामिमनिह हरिरकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥भावार्थ�:- ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यंत लोभी से रै्वाराग्य का र्वाण�न,

क्रोधी से शम (शांनित) की बात और कामी से भगर्वाान्‌की कथा, इनका रै्वासा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है ( अथा�त्‌ऊसर में बीज बोने की भाँनित यह सब व्यथ� जाता

है)॥2॥* अस कनिह रघुपनित चाप चढ़ार्वाा। यह मत लशिछमन के मन भार्वाा॥

संधानेउ प्रभु निबशिसख कराला। उठी उदमिध उर अंतर ज्र्वााला॥3॥भावार्थ�:- ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत

अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अखिग्न) बाण संधान निकया, जिजससे समुद्र के हृदय के अंदर अखिग्न की ज्र्वााला उठी॥3॥

* मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिनमिध जब जाने॥ कनक थार भरिर मनिन गन नाना। निबप्र रूप आयउ तजिज माना॥4॥

भावार्थ�:-मगर, साँप तथा मछशिलयों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीर्वाों को जलतेजाना, तब सोने के थाल में अनेक मणिणयों (रत्नों) को भरकर अणिभमान छोड़कर र्वाह ब्राह्मण

के रूप में आया॥4॥ दोहा :

* काटेहिहं पइ कदरी फरइ कोदिट जतन कोउ सींच। निबनय न मान खगेस सुनु डाटेहिहं पइ नर्वा नीच॥58॥

भावार्थ�:-( काकभुशुच्छिण्डजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिनए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करकेसींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच निर्वानय से नहीं मानता, र्वाह डाँटने पर ही

झुकता है ( रास्ते पर आता है)॥58॥* सभय क्तिसंधु गनिह पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अर्वागुन मेरे॥।

गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥भावार्थ�:- समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अर्वागुण(दोष) क्षमा कीजिजए। हे नाथ! आकाश, र्वाायु, अखिग्न, जल और पृथ्र्वाी- इन सबकी करनी

स्र्वाभार्वा से ही जड़ है॥1॥

Page 43: Sunderkand Hindi Meaning

* तर्वा पे्ररिरत मायाँ उपजाए। सृमिष्ट हेतु सब गं्रथनिन गाए॥ प्रभु आयसु जेनिह कहँ जस अहई। सो तेनिह भाँनित रहें सुख लहई॥2॥

भावार्थ�:- आपकी पे्ररणा से माया ने इन्हें सृमिष्ट के शिलए उत्पन्न निकया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिजसके शिलए स्र्वाामी की जैसी आज्ञा है, र्वाह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥

* प्रभु भल कीन्ह मोनिह शिसख दीन्हीं। मरजादा पुनिन तुम्हरी कीन्हीं॥ ढोल गर्वााँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अमिधकारी॥3॥

भावार्थ�:- प्रभु ने अच्छा निकया जो मुझे शिशक्षा (दंड) दी, हिकंतु मया�दा ( जीर्वाों का स्र्वाभार्वा) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँर्वाार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिशक्षा के अमिधकारी हैं॥3॥

* प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिरनिह कटकु न मोरिर बड़ाई॥ प्रभु अग्या अपेल श्रुनित गाई। करौं सो बेनिग जो तुम्हनिह सोहाई॥4॥

भावार्थ�:- प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है ( मेरी मया�दा नहीं रहेगी) । तथानिप प्रभु की आज्ञा अपेल है ( अथा�त्‌आपकी आज्ञा का

उल्लंघन नहीं हो सकता) ऐसा रे्वाद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत र्वाही करँू॥4॥

दोहा :* सुनत निबनीत बचन अनित कह कृपाल मुसुकाइ।

जेनिह निबमिध उतरै कनिप कटकु तात सो कहहु उपाइ॥59॥भावार्थ�:- समुद्र के अत्यंत निर्वानीत र्वाचन सुनकर कृपालु श्री रामजी ने मुस्कुराकर कहा- हेतात! जिजस प्रकार र्वाानरों की सेना पार उतर जाए, र्वाह उपाय बताओ॥59॥

चौपाई :* नाथ नील नल कनिप द्वौ भाई। लरिरकाईं रिरनिष आशिसष पाई॥

नितन्ह कें परस निकएँ निगरिर भारे। तरिरहहिहं जलमिध प्रताप तुम्हारे॥1॥भावार्थ�:-( समुद्र ने कहा)) हे नाथ! नील और नल दो र्वाानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में

ऋनिष से आशीर्वाा�द पाया था। उनके स्पश� कर लेने से ही भारी- भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएगँे॥1॥

* मैं पुनिन उर धरिर प्रभु प्रभुताई। करिरहउँ बल अनुमान सहाई॥ एनिह निबमिध नाथ पयोमिध बँधाइअ। जेहिहं यह सुजसु लोक नितहँु गाइअ॥2॥

भावार्थ�:- मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार ( जहाँ तक मुझसे बन पडे़गा) सहायता करँूगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बँधाइए, जिजससे तीनों लोकों में आपका संुदर यश गाया जाए॥2॥

* एनिह सर मम उwर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥ सुनिन कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिहं हरी राम रनधीरा॥3॥

भावार्थ�:- इस बाण से मेरे उwर तट पर रहने र्वााले पाप के राशिश दुष्ट मनुष्यों का र्वाध कीजिजए। कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर शिलया

( अथा�त्‌बाण से उन दुष्टों का र्वाध कर दिदया)॥3॥* देखिख राम बल पौरुष भारी। हरनिष पयोनिनमिध भयउ सुखारी॥

सकल चरिरत कनिह प्रभुनिह सुनार्वाा। चरन बंदिद पाथोमिध शिसधार्वाा॥4॥भावार्थ�:- श्री रामजी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षिषंत होकर सुखी हो गया।

उसने उन दुष्टों का सारा चरिरत्र प्रभु को कह सुनाया। निफर चरणों की र्वांदना करके समुद्र चलागया॥4॥

छंद :

Page 44: Sunderkand Hindi Meaning

* निनज भर्वान गर्वानेउ क्तिसंधु श्रीरघुपनितनिह यह मत भायऊ। यह चरिरत कशिल मल हर जथामनित दास तुलसी गायऊ॥  सुख भर्वान संसय समन दर्वान निबषाद रघुपनित गुन गना। तजिज सकल आस भरोस गार्वानिह सुननिह संतत सठ मना॥

भावार्थ�:- समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत ( उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरिरत्र कशिलयुग के पापों को हरने र्वााला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुजिt के

अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने र्वााले और निर्वाषाद का दमन करने र्वााले हैं। अरे मूख� मन! तू संसार का सब आशा- भरोसा त्यागकर निनरंतर इन्हें गा और सुन।

दोहा :* सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।

सादर सुनहिहं ते तरहिहं भर्वा क्तिसंधु निबना जलजान॥60॥भावार्थ�:- श्री रघुनाथजी का गुणगान संपूण� संुदर मंगलों का देने र्वााला है। जो इसे आदर

सनिहत सुनेंगे, र्वाे निबना निकसी जहाज ( अन्य साधन) के ही भर्वासागर को तर जाएगँे॥60॥मासपारायण, चौबीसवाँ विवश्राम

इवि� श्रीमद्रामचरिर�मानसे सकलकलिलकलुषविवध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्�ः।

कलिलयुग के समस्� पापों का नाश करने वाले श्री रामचरिर� मानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्� हुआ।

( संुदरकाण्ड समाप्�)