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Premchand Munshi

Premchand (31 July 1880 – 8 October 1936), better known as Munshi Premchand, is one of the most celebrated writers of the Indian subcontinent, and is regarded as one of the foremost Hindustani writers of the early twentieth century. Born Dhanpat Rai Srivastav, he began writing under the pen name "Nawab Rai", but subsequently switched to "Premchand". A novel writer, story writer and dramatist, he has been referred to as the "Upanyas Samrat" ("Emperor among Novelists") by some Hindi writers. His works include more than a dozen novels, around 250 short stories, several essays and translations of a number of foreign literary works into Hindi.

In 1909, Premchand was transferred to Mahoba, and later posted to Hamirpur as the Sub-deputy Inspector of Schools.Around this time, Soz-e-Watan was noticed by the British Government officials, who banned it as a seditious work. The British collector of the Hamirpur District ordered a raid on Premchand's house, where around five hundred copies of Soz-e-Watan were burnt. Subsequently, Dhanpat Rai had to change his pseudonym from "Nawab Rai" to "Premchand".

In 1914, Premchand started writing in Hindi (Hindi and Urdu are considered different registers of a single language Hindustani, with Hindi drawing much of its vocabulary from Sanskrit and Urdu being more influenced by Persian). By this time, he was already reputed as a fiction writer in Urdu. His first Hindi story Saut was published in the magazine Saraswati in December 1915, and his first short story collection Sapta Saroj was published in June 1917.

Premchand is considered the first Hindi author whose writings prominently featured realism. His novels describe the problems of the poor and the urban middle-class. His works depict a rationalistic outlook, which views religious values as something that allows the powerful hypocrites to exploit the weak. He used literature for the purpose of arousing public awareness about national and social issues and often wrote about topics related to corruption, child widowhood, prostitution, feudal system, poverty, colonialism and on the India's freedom movement.

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Boodhi Kaaki बढापा बहधा बचपन का पनरागमन हआ करता ह। बढी काकी म जिहवा-सवाद क सिवा और कोई चषटा शष न थी और न अपन कषटो की ओर आकरषित करन का, रोन क अततररकत कोई दिरा िहारा ही। िमसत इजरियाा, नतर, हाथ और पर िवाब द चक थ। पथवी पर पडी रहतीी और घर वाल कोई बात उनकी इचछा क परततकल करत, भोिन का िमय टल िाता या उिका पररणाम पणि न होता अथवा बाजार ि कोई वसत आती और न समलती तो य रोन लगती थीी। उनका रोना-सििकना िाधारण रोना न था, व गला फाड-फाडकर रोती थीी। उनक पततदव को सवगि सिधार कालाीतर हो चका था। बट तरण हो-होकर चल बि थ। अब एक भतीि क अलावा और कोई न था। उिी भतीि क नाम उरहोन अपनी िारी िमपजतत सलख दी। भतीि न िारी िमपजतत सलखात िमय खब लमब-चौड वाद ककए, ककरत व िब वाद कवल कली-डिपो क दलालो क ददखाए हए िबजजबाग थ। यदयरप उि िमपजतत की वारषिक आय िढ-दो िौ रपए ि कम न थी तथारप बढी काकी को पट भर भोिन भी कदिनाई ि समलता था। इिम उनक भतीि पीडित बरिराम का अपराध था अथवा उनकी अधाागगनी शरीमती रपा का, इिका तनणिय करना िहि नहीी। बरिराम सवभाव क िजिन थ, ककी त उिी िमय तक िब कक उनक कोष पर आाच न आए। रपा सवभाव ि तीवर थी िही, पर ईशवर ि िरती थी। अतएव बढी काकी को उिकी तीवरता उतनी न खलती थी जितनी बरिराम की भलमनिाहत। बरिराम को कभी-कभी अपन अतयाचार का खद होता था। रवचारत कक इिी िमपजतत क कारण म इि िमय भलामानष बना बिा हा। यदद भौततक आशवािन और िखी िहानभतत ि जसथतत म िधार हो िकता हो, उरह कदागचत कोई आपजतत न होती, पररत रवशष वयय का भय उनकी िचषटा को दबाए रखता था। यहाा तक कक यदद दवार पर कोई भला आदमी बिा होता और बढी काकी उि िमय अपना राग अलापन लगतीी तो वह आग हो िात और घर म आकर उरह िोर ि िााटत। लडको को बडढो ि सवाभारवक रवदवष होता ही ह और कफर िब माता-रपता का यह रीग दखत तो व बढी काकी को और िताया करत। कोई चटकी काटकर भागता, कोई इन पर पानी की कलली कर दता। काकी चीख मारकर रोतीी पररत यह बात परसिि थी कक वह कवल खान क सलए रोती ह, अतएव उनक िीताप और आतिनाद पर कोई धयान नहीी दता था। हाा, काकी करोधातर होकर बचचो को गासलयाा दन लगतीी तो रपा घटनासथल पर आ पहाचती। इि भय ि काकी अपनी जिहवा कपाण का कदागचत ही परयोग करती थीी, यदयरप उपिव-शाजरत का यह उपाय रोन ि कहीी अगधक उपयकत था।

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िमपणि पररवार म यदद काकी ि ककिी को अनराग था, तो वह बरिराम की छोटी लडकी लािली थी। लािली अपन दोनो भाइयो क भय ि अपन दहसि की समिाई-चबना बढी काकी क पाि बिकर खाया करती थी। यही उिका रकषागार था और यदयरप काकी की शरण उनकी लोलपता क कारण बहत मीहगी पडती थी, तथारप भाइयो क अरयाय ि िरकषा कहीी िलभ थी तो बि यहीी। इिी सवाथािनकलता न उन दोनो म िहानभतत का आरोपण कर ददया था। रात का िमय था। बरिराम क दवार पर शहनाई बि रही थी और गााव क बचचो का झीि रवसमयपणि नतरो ि गान का रिासवादन कर रहा था। चारपाइयो पर महमान रवशराम करत हए नाइयो ि मजककयाा लगवा रह थ। िमीप खडा भाट रवरदावली िना रहा था और कछ भावजञ महमानो की 'वाह, वाह' पर ऐिा खश हो रहा था मानो इि 'वाह-वाह' का यथाथि म वही अगधकारी ह। दो-एक अीगरजी पढ हए नवयवक इन वयवहारो ि उदािीन थ। व इि गावार मीिली म बोलना अथवा िजममसलत होना अपनी परततषिा क परततकल िमझत थ। आि बरिराम क बड लडक मखराम का ततलक आया ह। यह उिी का उतिव ह। घर क भीतर जसतरयाा गा रही थीी और रपा महमानो क सलए भोिन म वयसत थी। भदियो पर कडाह चढ रह थ। एक म पडडयाा-कचौडडयाा तनकल रही थीी, दिर म अरय पकवान बनत थ। एक बड हीि म मिालदार तरकारी पक रही थी। घी और मिाल की कषधावधिक िगीगध चारो ओर फली हई थी। बढी काकी अपनी कोिरी म शोकमय रवचार की भाातत बिी हई थीी। यह सवाद समगशरत िगीगध उरह बचन कर रही थी। व मन-ही-मन रवचार कर रही थीी, िीभवतः मझ पडडयाा न समलगीी। इतनी दर हो गई, कोई भोिन लकर नहीी आया। मालम होता ह िब लोग भोिन कर चक ह। मर सलए कछ न बचा। यह िोचकर उरह रोना आया, पररत अपशकन क भय ि वह रो न िकीी। 'आहा... किी िगीगध ह? अब मझ कौन पछता ह। िब रोदटयो क ही लाल पड ह तब ऐि भागय कहाा कक भरपट पडडयाा समल?' यह रवचार कर उरह रोना आया, कलि म हक-िी उिन लगी। परीत रपा क भय ि उरहोन कफर मौन धारण कर सलया। बढी काकी दर तक इरही दखदायक रवचारो म िबी रहीी। घी और मिालो की िगीगध रह-रहकर मन को आप ि बाहर ककए दती थी। माह म पानी भर-भर आता था। पडडयो का सवाद समरण करक हदय म गदगदी होन लगती थी। ककि पकारा , आि लािली बटी भी नहीी आई। दोनो छोकर िदा ददक ददया करत ह। आि उनका भी कहीी पता नहीी। कछ मालम तो होता कक कया बन रहा ह।बढी काकी की कलपना म पडडयो की तसवीर नाचन लगी। खब लाल-लाल, फली-फली, नरम-नरम होगीी। रपा न भली-भाातत भोिन ककया होगा। कचौडडयो म अिवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पडी समलती तो िरा हाथ म लकर दखती। कयो न चल कर कडाह क

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िामन ही बिा । पडडयाा छन-छनकर तयार होगी। कडाह ि गरम-गरम तनकालकर थाल म रखी िाती होगी। फल हम घर म भी िाघ िकत ह, पररत वादटका म कछ और बात होती ह। इि परकार तनणिय करक बढी काकी उकडा बिकर हाथो क बल िरकती हई बडी कदिनाई ि चौखट ि उतरीी और धीर-धीर रगती हई कडाह क पाि िा बिीी। यहाा आन पर उरह उतना ही धयि हआ जितना भख कतत को खान वाल क िममख बिन म होता ह। रपा उि िमय कायिभार ि उदरवगन हो रही थी। कभी इि कोि म िाती, कभी उि कोि म, कभी कडाह क पाि िाती, कभी भीिार म िाती। ककिी न बाहर ि आकर कहा--'महाराि िीिई माीग रह ह।' िीिई दन लगी। इतन म कफर ककिी न आकर कहा--'भाट आया ह, उि कछ द दो।' भाट क सलए िीधा तनकाल रही थी कक एक तीिर आदमी न आकर पछा--'अभी भोिन तयार होन म ककतना रवलमब ह? िरा ढोल, मिीरा उतार दो।' बचारी अकली सतरी दौडत-दौडत वयाकल हो रही थी, झीझलाती थी, कढती थी, पररत करोध परकट करन का अविर न पाती थी। भय होता, कहीी पडोसिन यह न कहन लग कक इतन म उबल पडीी। पयाि ि सवयी की ि िख रहा था। गमी क मार फा की िाती थी, पररत इतना अवकाश न था कक िरा पानी पी ल अथवा पीखा लकर झल। यह भी खटका था कक िरा आाख हटी और चीजो की लट मची। इि अवसथा म उिन बढी काकी को कडाह क पाि बिी दखा तो िल गई। करोध न रक िका। इिका भी धयान न रहा कक पडोसिन बिी हई ह, मन म कया कहगीी। परषो म लोग िनग तो कया कहग। जिि परकार मढक क चए पर झपटता ह, उिी परकार वह बढी काकी पर झपटी और उरह दोनो हाथो ि झटक कर बोली-- ऐि पट म आग लग, पट ह या भाड? कोिरी म बित हए कया दम घटता था? अभी महमानो न नहीी खाया, भगवान को भोग नहीी लगा, तब तक धयि न हो िका? आकर छाती पर िवर हो गई। िल िाए ऐिी िीभ। ददन भर खाती न होती तो िान ककिकी हाीिी म माह िालती? गााव दखगा तो कहगा कक बदढया भरपट खान को नहीी पाती तभी तो इि तरह माह बाए कफरती ह। िायन न मर न माीचा छोड। नाम बचन पर लगी ह। नाक कटवा कर दम लगी। इतनी िािती ह न िान कहाी भसम हो िाता ह। भला चाहती हो तो िाकर कोिरी म बिो, िब घर क लोग खान लगग, तब तमह भी समलगा। तम कोई दवी नहीी हो कक चाह ककिी क माह म पानी न िाए, पररत तमहारी पिा पहल ही हो िाए। बढी काकी न सिर उिाया, न रोई न बोलीी। चपचाप रगती हई अपनी कोिरी म चली गई। आवाज ऐिी किोर थी कक हदय और मजषतषक की िमपणि शजकतयाा, िमपणि रवचार और िमपणि भार उिी ओर आकरषित हो गए थ। नदी म िब कगार का कोई वहद खीि कटकर गगरता ह तो आि-पाि का िल िमह चारो ओर ि उिी सथान को परा करन क सलए दौडता ह। भोिन तयार हो गया ह। आीगन म पततल पड गई, महमान खान लग। जसतरयो न िवनार-गीत गाना आरमभ कर ददया। महमानो क नाई और िवकगण भी उिी मीिली क िाथ, ककी त कछ हटकर भोिन करन बि थ, पररत िभयतानिार िब तक िब-क-िब खा न चक कोई उि नहीी िकता था। दो-एक महमान िो कछ पढ-सलख थ,

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िवको क दीघािहार पर झीझला रह थ। व इि बीधन को वयथि और बकार की बात िमझत थ। बढी काकी अपनी कोिरी म िाकर पशचाताप कर रही थी कक म कहाा-ि-कहाा आ गई। उरह रपा पर करोध नहीी था। अपनी िलदबाजी पर दख था। िच ही तो ह िब तक महमान लोग भोिन न कर चक ग, घर वाल कि खाएीग। मझ ि इतनी दर भी न रहा गया। िबक िामन पानी उतर गया। अब िब तक कोई बलान नहीी आएगा, न िाऊी गी। मन-ही-मन इि परकार का रवचार कर वह बलान की परतीकषा करन लगीी। पररत घी की रगचकर िवाि बडी धरयि-परीकषक परतीत हो रही थी। उरह एक-एक पल एक-एक यग क िमान मालम होता था। अब पततल बबछ गई होगी। अब महमान आ गए होग। लोग हाथ पर धो रह ह, नाई पानी द रहा ह। मालम होता ह लोग खान बि गए। िवनार गाया िा रहा ह, यह रवचार कर वह मन को बहलान क सलए लट गई। धीर-धीर एक गीत गनगनान लगीी। उरह मालम हआ कक मझ गात दर हो गई। कया इतनी दर तक लोग भोिन कर ही रह होग। ककिी की आवाज िनाई नहीी दती। अवशय ही लोग खा-पीकर चल गए। मझ कोई बलान नहीी आया ह। रपा गचढ गई ह, कया िान न बलाए। िोचती हो कक आप ही आवगीी, वह कोई महमान तो नहीी िो उरह बलाऊा । बढी काकी चलन को तयार हई। यह रवशवाि कक एक समनट म पडडयाा और मिालदार तरकाररयाी िामन आएीगीी, उनकी सवादजरियो को गदगदान लगा। उरहोन मन म तरह-तरह क मीिब बाीध-- पहल तरकारी ि पडडयाा खाऊी गी, कफर दही और शककर ि, कचौररयाा रायत क िाथ मजदार मालम होगी। चाह कोई बरा मान चाह भला, म तो माीग-माीगकर खाऊी गी। यही न लोग कहग कक इरह रवचार नहीी? कहा कर, इतन ददन क बाद पडडयाा समल रही ह तो माह झिा करक थोड ही उि िाऊी गी । वह उकडा बिकर िरकत हए आीगन म आई। पररत हाय दभािगय! असभलाषा न अपन परान सवभाव क अनिार िमय की समथया कलपना की थी। महमान-मीिली अभी बिी हई थी। कोई खाकर उीगसलयाा चाटता था, कोई ततरछ नतरो ि दखता था कक और लोग अभी खा रह ह या नहीी। कोई इि गचीता म था कक पततल पर पडडयाा छटी िाती ह ककिी तरह इरह भीतर रख लता। कोई दही खाकर चटकारता था, पररत दिरा दोना माीगत िीकोच करता था कक इतन म बढी काकी रगती हई उनक बीच म आ पहाची। कई आदमी चौककर उि खड हए। पकारन लग-- अर, यह बदढया कौन ह? यहाा कहाा ि आ गई? दखो, ककिी को छ न द। पीडित बरिराम काकी को दखत ही करोध ि ततलसमला गए। पडडयो का थाल सलए खड थ। थाल को जमीन पर पटक ददया और जिि परकार तनदियी महािन अपन ककिी बइमान और भगोड कजिदार को दखत ही उिका टटआ पकड लता ह उिी तरह लपक कर उरहोन काकी क दोनो हाथ पकड और घिीटत हए लाकर उरह अीधरी कोिरी म धम ि पटक ददया। आशारपी वदटका ल क एक झोक म रवनषट हो गई।

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महमानो न भोिन ककया। घरवालो न भोिन ककया। बाि वाल, धोबी, चमार भी भोिन कर चक, पररत बढी काकी को ककिी न न पछा। बरिराम और रपा दोनो ही बढी काकी को उनकी तनलिजिता क सलए दीि दन क तनशचय कर चक थ। उनक बढाप पर, दीनता पर, हतजञान पर ककिी को करणा न आई थी। अकली लािली उनक सलए कढ रही थी। लािली को काकी ि अतयीत परम था। बचारी भोली लडकी थी। बाल-रवनोद और चीचलता की उिम गीध तक न थी। दोनो बार िब उिक माता-रपता न काकी को तनदियता ि घिीटा तो लािली का हदय ऎ ीिकर रह गया। वह झीझला रही थी कक हम लोग काकी को कयो बहत-िी पडडयाा नहीी दत। कया महमान िब-की-िब खा िाएीग? और यदद काकी न महमानो ि पहल खा सलया तो कया बबगड िाएगा? वह काकी क पाि िाकर उरह धयि दना चाहती थी, पररत माता क भय ि न िाती थी। उिन अपन दहसि की पडडयाा बबलकल न खाई थीी। अपनी गडडया की रपटारी म बरद कर रखी थीी। उन पडडयो को काकी क पाि ल िाना चाहती थी। उिका हदय अधीर हो रहा था। बढी काकी मरी बात िनत ही उि बिगीी, पडडयाा दखकर किी परिरन होगीी! मझ खब पयार करगीी। रात को गयारह बि गए थ। रपा आीगन म पडी िो रही थी। लािली की आाखो म नीीद न आती थी। काकी को पडडयाा खखलान की खशी उि िोन न दती थी। उिन ग डडयो की रपटारी िामन रखी थी। िब रवशवाि हो गया कक अममा िो रही ह, तो वह चपक ि उिी और रवचारन लगी, कि चला। चारो ओर अीधरा था। कवल चलहो म आग चमक रही थी और चलहो क पाि एक कतता लटा हआ था। लािली की दजषट िामन वाल नीम पर गई। उि मालम हआ कक उि पर हनमान िी बि हए ह। उनकी पाछ, उनकी गदा, वह सपषट ददखलाई द रही ह। मार भय क उिन आाख बीद कर लीी। इतन म कतता उि बिा, लािली को ढाढि हआ। कई िोए हए मनषयो क बदल एक भागता हआ कतता उिक सलए अगधक धयि का कारण हआ। उिन रपटारी उिाई और बढी काकी की कोिरी की ओर चली। बढी काकी को कवल इतना समरण था कक ककिी न मर हाथ पकडकर घिीट, कफर ऐिा मालम हआ कक िि कोई पहाड पर उडाए सलए िाता ह। उनक पर बार-बार पतथरो ि टकराए तब ककिी न उरह पहाड पर ि पटका, व मतछित हो गई। िब व िचत हई तो ककिी की जरा भी आहट न समलती थी। िमझी कक िब लोग खा-पीकर िो गए और उनक िाथ मरी तकदीर भी िो गई। रात कि कटगी? राम! कया खाऊा ? पट म अजगन धधक रही ह। हा! ककिी न मरी िगध न ली।

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कया मरा पट काटन ि धन िड िाएगा? इन लोगो को इतनी भी दया नहीी आती कक न िान बदढया कब मर िाए? उिका िी कयो दखाव? म पट की रोदटयाा ही खाती हा कक और कछ? इि पर यह हाल। म अीधी, अपादहि िहरी, न कछ िना, न बझा। यदद आीगन म चली गई तो कया बरिराम ि इतना कहत न बनता था कक काकी अभी लोग खाना खा रह ह कफर आना। मझ घिीटा, पटका। उरही पडडयो क सलए रपा न िबक िामन गासलयाा दीी। उरहीी पडडयो क सलए इतनी दगितत करन पर भी उनका पतथर का कलिा न पिीिा। िबको खखलाया, मरी बात तक न पछी। िब तब ही न दीी, तब अब कया दग? यह रवचार कर काकी तनराशामय िीतोष क िाथ लट गई। गलातन ि गला भर-भर आता था, पररत महमानो क भय ि रोती न थीी। िहिा कानो म आवाज आई-- 'काकी उिो, म पडडयाी लाई हा।' काकी न लाडली की बोली पहचानी। चटपट उि बिीी। दोनो हाथो ि लािली को टटोला और उि गोद म बबिा सलया। लािली न पडडयाा तनकालकर दीी। काकी न पछा-- कया तमहारी अममा न दी ह? लािली न कहा-- नहीी, यह मर दहसि की ह। काकी पडडयो पर टट पिीी। पााच समनट म रपटारी खाली हो गई। लािली न पछा-- काकी पट भर गया। िि थोडी-िी वषाि िीिक क सथान पर और भी गमी पदा कर दती ह उि भाातत इन थोडी पडडयो न काकी की कषधा और इकषा को और उततजित कर ददया था। बोलीी-- नहीी बटी, िाकर अममा ि और माीग लाओ। लाडली न कहा-- अममा िोती ह, िगाऊी गी तो मारगीी। काकी न रपटारी को कफर टटोला। उिम कछ खचिन गगरी थी। बार-बार होि चाटती थीी, चटखार भरती थीी। हदय मिोि रहा था कक और पडडयाा कि पाऊा । िीतोष-ित िब टट िाता ह तब इचछा का बहाव अपररसमत हो िाता ह। मतवालो को मद का समरण करना उरह मदाीध बनाता ह। काकी का अधीर मन इचछाओी क परबल परवाह म बह गया। उगचत और अनगचत का रवचार िाता रहा। व कछ दर तक उि इचछा को रोकती रहीी। िहिा लािली ि बोलीी-- मरा हाथ पकडकर वहाा ल चलो, िहाा महमानो न बिकर भोिन ककया ह। लािली उनका असभपराय िमझ न िकी। उिन काकी का हाथ पकडा और ल िाकर झि पततलो क पाि बबिा ददया। दीन, कषधातर, हत जञान बदढया पततलो ि पडडयो क टकड चन-चनकर भकषण करन लगी। ओह... दही ककतना सवाददषट था, कचौडडयाा ककतनी िलोनी, खसता ककतन िकोमल। काकी बरिहीन होत हए भी इतना िानती थीी कक म वह काम कर रही ही, िो मझ कदारप न करना चादहए। म दिरो की झिी पततल चाट रही हा। पररत बढापा तषणा रोग का अीततम िमय ह, िब िमपणि इचछाएा एक ही करि पर आ लगती ह। बढी काकी म यह करि उनकी सवादजरिय थी।

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िीक उिी िमय रपा की आाख खली। उि मालम हआ कक लाडली मर पाि नहीी ह। वह चौकी, चारपाई क इधर-उधर ताकन लगी कक कहीी नीच तो नहीी गगर पडी। उि वहाा न पाकर वह उिी तो कया दखती ह कक लाडली िि पततलो क पाि चपचाप खडी ह और बढी काकी पततलो पर ि पडडयो क टकड उिा-उिाकर खा रही ह। रपा का हदय िरन हो गया। ककिी गाय की गरदन पर छरी चलत दखकर िो अवसथा उिकी होती, वही उि िमय हई। एक बराहमणी दिरो की झिी पततल टटोल, इिि अगधक शोकमय दशय अिीभव था। पडडयो क कछ गरािो क सलए उिकी चचरी िाि ऐिा तनषकषट कमि कर रही ह। यह वह दशय था जिि दखकर दखन वालो क हदय कााप उित ह। ऐिा परतीत होता मानो जमीन रक गई, आिमान चककर खा रहा ह। िीिार पर कोई आपजतत आन वाली ह। रपा को करोध न आया। शोक क िममख करोध कहाा? करणा और भय ि उिकी आाख भर आई। इि अधमि का भागी कौन ह? उिन िचच हदय ि गगन मीिल की ओर हाथ उिाकर कहा-- परमातमा, मर बचचो पर दया करो। इि अधमि का दीि मझ मत दो, नहीी तो मरा ितयानाश हो िाएगा। रपा को अपनी सवाथिपरता और अरयाय इि परकार परतयकष रप म कभी न ददख पड थ। वह िोचन लगी-- हाय! ककतनी तनदिय हा। जििकी िमपतत ि मझ दो िौ रपया आय हो रही ह, उिकी यह दगितत। और मर कारण। ह दयामय भगवान! मझि बडी भारी चक हई ह, मझ कषमा करो। आि मर बट का ततलक था। िकडो मनषयो न भोिन पाया। म उनक इशारो की दािी बनी रही। अपन नाम क सलए िकडो रपए वयय कर ददए, पररत जििकी बदौलत हजारो रपए खाए, उि इि उतिव म भी भरपट भोिन न द िकी। कवल इिी कारण तो, वह विा अिहाय ह। रपा न ददया िलाया, अपन भीिार का दवार खोला और एक थाली म िमपणि िामगगरयाी ििाकर बढी काकी की ओर चली। आधी रात िा चकी थी, आकाश पर तारो क थाल िि हए थ और उन पर बि हए दवगण सवगीय पदाथि ििा रह थ, पररत उिम ककिी को वह परमानीद परापत न हो िकता था, िो बढी काकी को अपन िममख थाल दखकर परापत हआ। रपा न की िारि सवर म कहा---काकी उिो, भोिन कर लो। मझि आि बडी भल हई, उिका बरा न मानना। परमातमा ि पराथिना कर दो कक वह मरा अपराध कषमा कर द। भोल-भोल बचचो की भाातत, िो समिाइयाा पाकर मार और ततरसकार िब भल िाता ह, बढी काकी वि ही िब भलाकर बिी हई खाना खा रही थी। उनक एक-एक रोए ि िचची िददचछाएा तनकल रही थीी और रपा बिी सवगीय दशय का आनरद लन म तनमगन थी।

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Work in Progress

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Theatre Stage Setup

House

Guests eating dinner Kitchen

Marriage sitting area

Kaaki’s Room

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Theatre Stage Setup

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Kaki’s room when she’s first thinking about how amazing the experience of smelling flowers is in a garden than just being next to one, so she decides to go to the kitchen and enjoy the experience of all

the delicacies prepared for the “tilak”.

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Marriage Scene before Kaki starts for the kitchen.

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Scene in the kitchen when Roopa is yelling at Kaki and starts dragging her out.

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Kaki is back in her room after Roopa drags her there. Kaki starts thinking about the dinner again and feels that since she’s not a guest nobody will call her

separately for dinner so she should probably help herself. She imagines the entire marriage scene happening outside and then gets ready to leave her

room again.

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Kaki reaches the marriage scene where the guests are sitting and having dinner. They start snickering on seeing her.

Kaki’s nephew, Budhiram, sees her at the dinner area and gets furious. He embarrasses her in front of everyone and then drags her out of the scene and locks her in

the closet, “kothri”.

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Budhiram, leaves Kaki to her hunger and misery in the closet. Kaki is really upset and full of self pity. She’s starving, but can’t get the courage to go outside again.

While she’s fantasizing about the mouth-watering dinner, Ladli enters her room and offers Kaki, her share of food.

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Last scene- outside the house, where Roopa has served Kaki the entire dinner and regrets her actions towards Kaki earlier. She prays to God for forgiveness and asks Kaki to forgive her as well.

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