Pratapm1977@gmail - pratnakirti.com in... · Manusmriti is a renown work among Hindu Dharmashastra...

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Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694 www.pratnakirti.com 18 आहा-छद मनुमृति का सौ वष ाचीन एक तवलण अनुवाद िाप कु मार तम © [email protected] - Alha. Aalha Chand. Manusmriti. Manusmriti in Aalha Metere. Translations of Manusmriti. Manusmriti in other languages. Hindi Translations of Sanskrit Works. सार संेप Manusmriti is a renown work among Hindu Dharmashastra (Constitutional, Civil, Criminal Laws etc. ) and translated into various languages of India and abroad. Although the aim of the translation of a work preserves the original into another language but sometime the aims of a translation may differ and we see that the painful task was chosen for not only preserving the original in a language but to present the deferent Art, style and methods of the translation. Present translation of the Manusmriti is a rare work in the history of the translation because it presents that Art, Style and Methodology of the Translation which could contribute a language in the manner of produce the separate literature through a translation. The Meter; which was chosen to translate this work is much famous in Hindi Literature but often not used to translation. If we observe the History of Sanskrit Literature no work would be found in ÁLHÁ meter. This paper deals about the translation, its translator, his style and Art, the history of ÁLHÁ and its utilisation in Hindi literature. धमष, संदाय आᳰद ऱᳰिवादी धरािल को छोड़ और तवशु ऐतिहातसक, पौरातणक एवं सांकृतिक धरािल पर भारिीय ाचीन आयातममक सातहमय के मनुमृति कᳱ चचाष कर ितनय ही संसार का कोई भी अयेिा इस भारिीय गौरव को तव सातहमय के एक अनमोल के ऱप वीकार करेगा। ाचीन भारिीय सयिा, संकृ ति, भारिीय जीवन-दशषन, समाज, समाजशाᳫ, मानव-ᳰदनचयाष , चार- तवचार, वहार, खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूा, मनन- तचिन, धमष -नीति-राजनीति, अपराध, दडनीति, कानून आᳰद तवय के अययन के तलए मनुमृति एक आदशष के ऱप ाय एवं िीय तवान के ारा वीकृ ि रहा है। © अतखल भारिीय मुतलम-संकृि संरण एवं ाय शोध संथान, वाराणसी.

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    ‘आल्हा’-छन्द में मनसु्मृति का सौ वर्ष प्राचीन एक तवलक्षण अनवुाद

    प्रिाप कुमार तमश्र© [email protected]

    - – Alha. Aalha Chand. Manusmriti. Manusmriti in Aalha Metere. Translations of

    Manusmriti. Manusmriti in other languages. Hindi Translations of Sanskrit Works.

    सार सकं्षपे

    Manusmriti is a renown work among Hindu Dharmashastra (Constitutional, Civil,

    Criminal Laws etc. ) and translated into various languages of India and abroad. Although the

    aim of the translation of a work preserves the original into another language but sometime

    the aims of a translation may differ and we see that the painful task was chosen for not only

    preserving the original in a language but to present the deferent Art, style and methods of the

    translation.

    Present translation of the Manusmriti is a rare work in the history of the translation

    because it presents that Art, Style and Methodology of the Translation which could contribute

    a language in the manner of produce the separate literature through a translation. The

    Meter; which was chosen to translate this work is much famous in Hindi Literature but often

    not used to translation. If we observe the History of Sanskrit Literature no work would be

    found in ÁLHÁ meter. This paper deals about the translation, its translator, his style and Art,

    the history of ÁLHÁ and its utilisation in Hindi literature.

    धमष, संप्रदाय आदद रूदिवादी धरािल को छोड़ दें और तवशुद्ध ऐतिहातसक, पौरातणक एवं

    सांस्कृतिक धरािल पर भारिीय प्राचीन आध्यातममक सातहमय के क्रम में मनुस्मृति की चचाष करें िो तनश्चय ही

    संसार का कोई भी अध्येिा इस भारिीय गौरव ग्रन्थ को तवश्व सातहमय के एक अनमोल ग्रन्थ के रूप में स्वीकार

    करेगा। प्राचीन भारिीय सभ्यिा, संस्कृति, भारिीय जीवन-दशषन, समाज, समाजशास्त्र, मानव-ददनचयाष, चार-

    तवचार, व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूर्ा, मनन- तचन्िन, धमष-नीति-राजनीति, अपराध, दण्डनीति,

    कानून आदद तवर्यों के अध्ययन के तलए मनुस्मृति एक आदशष ग्रन्थ के रूप में प्राच्य एवं प्रिीच्य तवद्वानों के द्वारा

    स्वीकृि रहा ह।ै

    © अतखल भारिीय मुतस्लम-संस्कृि संरक्षण एवं प्राच्य शोध संस्थान, वाराणसी.

    mailto:[email protected]

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    मनुस्मृति के रचनाकाल को लेकर प्रायः समस्ि दशेीय एवं तवदशेीय तवद्वानों ने अपने अपने शोध-

    तनष्कर्ों के आधार पर मि-वाद एवं तसद्धान्िों को प्रस्िुि दकया ह ैदकन्िु इस तवर्य में कोई एक एकमि आज

    िक प्रतितिि नहीं हो सका ह।ै वैसे अतधकिर तवद्वान ्यह स्वीकार करि ेहैं दक ईस्वी सन् स ेकम से कम 300 वर्ष

    पूवष मनुस्मृति का विषमान रूप अवश्य ही प्रस्िुि हो चुका था। दकन्िु सनािन भारिीय दतृिकोण भारिीय

    धमषग्रन्थों के काल-तनधाषरण में उपयुषक्त मि का घोर तवरोधी ह ैऔर इस क्रम में वह मनुस्मृति का रचनाकाल

    हज़ारों वर्ष पूवष मानन ेका पक्षधर ह।ै

    कालजयी कृतियों का अपना यह वैयतक्तक महत्त्व होिा ह ै दक वे अपने वण्यष-तवर्य की तवतवधिा,

    लोकोपयोतगिा एवं सवषजन-उपकाररिा के कारण शीघ्र ही तवतभन्न भार्ाओं में अनूददि हो जाया करिी हैं। ऐसी

    कृतियों का भार्ान्िर में अनूददि हो जाना स्वाभातवक ह ैऔर अनुवाद सातहमय के इतिहास पर दतृिपाि करें िो

    यह पाया जािा ह ै दक दकसी भार्ा की कृति का भार्ान्िर में पररवर्तिि हो जाने के पीछे उस कृति के अपने

    तवतवध महत्त्व ही कारण होिे हैं।

    भारिीय एवं तवदशेी भार्ाओं में मनुस्मृति के लगभग सकैड़ों अनुवाद दकए जा चुके हैं और प्रायः ही य े

    अनुवाद प्रकातशि भी हैं । भारिीय भार्ाओं में तहन्दी, बंगला, मराठी, गुजरािी, उदूष, उतड़या, असमी आदद

    पूवोत्तर िथा कन्नड़, ितमल आदद दतक्षण भारिीय भार्ाओं में मनुस्मृति के अनुवाद उपलब्ध हैं। दकन्िु अभी

    स्वयं इन भार्ाओं में कतिपय अनुवाद ऐसे भी हैं तजनका कोई अिा-पिा ित्ति ्सातहमय समाज को नहीं के

    बराबर ह।ै इनमें भी कतिपय िो ऐसे हैं तजन्हें अपने समय में प्रकातशि होन ेका सौभाग्य प्राप्त हो गया जबदक

    कुछ अनुवाद ऐस ेभी हैं तजन्हें अपने क्या इस समय िक प्रकातशि होन ेका सौभाग्य नहीं प्राप्त हो सका ह।ै अिः

    ये अनुवाद विषमान सातहमय-समाज के तलए अधुना पयषन्ि अज्ञाि या अल्पज्ञाि ही रह ेहैं और प्रायः तवलुप्त होन े

    के कगार पर हैं। ऐसे इन अनुवादों में ित्ति ्भार्ा का जो काव्य-सौन्दयष, अनुवादक की अपनी काव्य-प्रतिभा एवं

    अनुवाद-कला आदद समातहि होिी ह ै उसके महत्त्व स े विषमान समीक्षा-जगि और काव्य-ममषज्ञ सातहमय-

    आलोचक बखूबी पररतचि हैं अिः उसके तवर्य में यहां तवस्िार से कुछ तलखना आवश्यक नहीं प्रिीि होिा।

    यहां हम ऐस ेही तवलुप्त-प्राय मनुस्मृति के एक; सौ वर्ष प्राचीन तवलक्षण तहन्दी (खड़ी बोली) अनुवाद

    की ओर अपने पाठकों का ध्यान आकृि करि ेहैं जो दक प्रकातशि होन ेके बाद भी लगभग अप्रकातशि के समान

    ही दषु्प्राप्य और अनुपलब्ध िो ह ैही तहन्दी सातहमय-जगि में स्वयं गुमनाम भी और अज्ञाि भी। यहां यह भी

    बिाना उतचि होगा दक मनुस्मृति का यह तहन्दी अनुवाद कोई सामान्य अनुवाद या चलिा-दिरिा अनुवाद नहीं

    प्रमयुि बहुि ही तवलक्षण एवं दलुषभ कोरि का अनुवाद ह ै और सातधकार िो नहीं दकन्िु अपने अब िक के

    पुस्िकालयीय-जीवन के अनुभवों, संस्कृि-ग्रन्थों के तवतवध भार्ाओं के अनुवादों पर ही कायष करन े के

    दीघषकालीन अनुभव सतहि मनुस्मृति के अब िक हुए तहन्दी अनुवादों की सूची आदद के आधार पर यह अवश्य

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    कहगंा यह प्रथम अनुवाद ही नहीं संस्कृि-ग्रन्थों के तहन्दी अनुवादों की शंृखला में भी यह प्रथम अनुवाद ह ैतजस े

    तहन्दी सातहमय के एक तवलक्षण, लोकतप्रय एवं प्रचतलि आल्हा'-छन्द में प्रस्िुि दकया गया ह।ै अनूददि संस्कृि-

    सातहमय के इतिहास में यह मनुस्मृति का ही सौभाग्य ह ैदक उस ेतहन्दी के इस सबस ेलोकतप्रय छन्द में अनूददि

    होन ेका सौभाग्य प्राप्त हुआ।

    मनसु्मृति का प्रस्िुि अनवुाद

    हम यह बिा चुके हैं दक तवतभन्न भारिीय भार्ाओं में मनुस्मृति के अनेकानेक अनुवाद प्रकातशि हो चुके

    हैं। इन अनुवादों में सबस ेअतधक संख्या तहन्दी अनुवादों की ह ैऔर उसके बाद मराठी में दकए गए अनुवाद आिे

    हैं। अधुना पयषन्ि उपलब्ध मनुस्मृति के तहन्दी अनुवादों को हम दो वगों में तवभक्त कर सकि ेहैं। प्रथम वगष में वे

    अनुवाद आिे हैं तजनका प्रयोजन मात्र मनुस्मृति के भावाथष को सरल तहन्दी भार्ा में प्रस्िुि कर दनेा होिा ह।ै

    इनका अपना कोई सातहतमयक महत्त्व या काव्यगि सौन्दयष नहीं होिा या इन अनुवादों में ऐसी कोई तवलक्षणिा

    नहीं होिी तजनके आधार पर इन्हें भातर्क सातहमय का गौरव ग्रन्थ बिाया जा सके। इन अनुवादों को साधारण

    भार्ा-शैली में और तहन्दी गद्य की तवधा में प्रस्िुि दकया जािा ह।ै तद्विीय वगष में वे अनुवाद आि ेहैं तजनका

    प्रयोजन मात्र मनुस्मृति का भावाथष तहन्दी में प्रस्िुि करना ही नहीं होिा अतपिु ये एक तवतशि प्रकार के

    काव्यगि-सौन्दयष को स्वयं में समातहि दकय ेहोिे हैं और अपनी अनुवाद-शैली की तवतभन्न तवशेर्िाओं के कारण

    उमकृि सातहतमयक महत्त्व के आधायक होि ेहैं। इन अनुवादों की भार्ा एक उमकृि रूप को धारण दकय ेहोिी ह ै

    और इसके साथ ही इनमें अलंकृि-शैली का भी तनदशषन प्राप्त होिा ह।ै तद्विीय वगष के इन अनुवादों को गद्य एवं

    पद्य दोनों ही तवधाओं में प्रस्िुि दकया गया ह ै दकन्िु गद्य की अपेक्षा पद्य वाल े अनुवाद कुछ अलग भी

    सातहतमयक-महत्त्व के पररचायक हैं। मनुस्मृति का प्रस्िुि अनुवाद हमारे तद्विीय वगष में समातहि होन ेवाला एक

    तवलक्षण अनुवाद ह।ै इसकी तवलक्षणिा के कई कारक ित्त्व अनुवाद में उपलब्ध होिे हैं तजनमें दो महत्त्वपूणष

    कारक हैं इस अनुवाद की भार्ा-शैली और अनुवाद का छन्द, तजनकी चचाष हम आगे करेंगे।

    प्रस्ििु अनवुाद स ेसबंतन्धि कतिपय ध्यािव्य तवन्द ु

    समूचा अनुवाद मुनस्मृति के समान ही १२ अध्यायों में समाप्त होिा ह।ै

    प्रमयेक अध्याय के प्रमयेक पद्य का अनुवाद दकया गया ह ैदकन्िु पद्यों की संख्या में उस प्रकार की

    सावधानी नहीं बरिी गई ह ैअथाषि् मूल के दकसी दकसी पद्य के तलए एक स ेअतधक तहन्दी पद्यों

    में उसे अनूददि दकया गया ह।ै

    अध्यायों में अनुवाद के पद्यों की कोई तनयि संख्या नहीं ह ैअथाषि् प्रमयेक अध्याय दकिन ेपद्यों

    में समाप्त हो रहा ह ैया समूचे अनुवाद में दकिन ेपद्य हैं इसकी सूचना अनुवाद में नहीं दी गई

    ह।ै

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    अनुवाद का प्रारंभ करि ेहुए अनुवादक न ेजो प्रारतभभक वक्तव्य ददया ह ैउस ेहम इस अनुवाद

    का उपोद्घाि कह सकि ेहैं जो दक तनम्नवि् ह ै:

    ओंकार का सतुमरन कररय ेजो ह ैपारब्रह्म का नाम ।

    तवद्या दवेी की पजूा करी जासो तमल ेस्वगष का धाम।।

    बतुद्ध मािा ि ूदहनी हो सभमखु होय श्रीभगवान।

    कृपा रखें मों पै परमशे्वर सारे काम तसद्ध हों आन।।

    मन ुपंवारे को गावि ह ंजास ूदशे तसद्ध हो जाए।

    जो कोई अक्षर भलूू ंतबच में तवद्या मािा करे सहाय।।

    धमषवीर तजतह सनुकर उपजें पापी कापं कापं रह जाय।ं

    बल बीरज की वतृद्ध होव ेधन की वृतद्ध तगनी ना जाय।।

    अनवुाद का प्रकाशन

    मनुस्मृति का प्रस्िुि अनुवाद आज स ेलगभग १०४ वर्ष पूवष प्रकातशि हुआ था और प्रकातशि संस्करण

    की प्रतियां अमयन्ि दलुषभ हो चुकी हैं। प्रकातशि संस्करण का मुख्य पृि इस प्रकार ह ै–

    आल्हा ध्वतन मनसु्मृति

    तजसको

    श्रीयुि् मंुशी दयाराम साहब ने

    िुलसीराम स्वामी के प्रबन्ध स े

    ( मेशीन युक्त ) स्वातमयन्त्रालय मेरठ में

    छपवाकर प्रकातशि दकया

    ई. - 1902 मूल्य - दो आने

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    उपयुषक्त सूचना के अनुसार मंुशी दयाराम साहब ने इस अनुवाद को अपने संपादन में प्रकातशि कराया

    था दकन्िु प्रकातशि संस्करण में इस बाि पर कोई प्रकाश नहीं डाला गया ह ैदक इस अनुवाद का अनुवादक कौन

    ह।ै क्योंदक मंुशी दयाराम साहब इसके अनुवादक नहीं ह ैयह बाि प्रकातशि संस्करण के मुख्य पृि पर ही तसद्ध

    ह,ै जैसा दक कहा गया ह ैदक दयाराम सातहब ने इस अनुवाद को संपाददि कर प्रकातशि कराया। यहा ंयह नहीं

    बिाया गया ह ैदक दयाराम सातहब ने ही स्वयं इसका अनुवाद भी दकया।

    अनुवाद के अतन्िम भाग; तजस े हम अनुवाद की अतन्िम पुतष्पका कह सकि े हैं, -में इस ग्रन्थ के

    अनुवादक ने कुछ पद्य तनम्नवि् तलखे हैं, तजसस े हम उपयुषक्त तनष्कर्ष के साथ ही अनुवादक से संबतन्धि

    प्रामातणक जानकारी प्राप्त कर सकि ेहैं –

    मनसु्मतृि अध्याय बारहवीं आल्हा छन्द में कहो तवचार।

    अक्षर मात्रा कमी जो होव ेकतवजन िाकों लेंय सधुार।।

    दयाराम की आज्ञा अरु समझु धमषशास्त्रतह को सार ।

    यही तवचार करी ह ैरचना गपु्त भदे यह जातनय ेयार।।

    सवंि ्उनइस सौ उनसठवों मास क्वारहह को शभु मान।

    श्री परमशे्र कृपादतृि सों परूण ग्रथं भयो यह जान ।। (पृि-१९०)

    इस पुतष्पका को पिने स े यह बाि िो प्रमातणि हो जािी ह ै दक प्रस्िुि अनुवाद के प्रणयन में मंुशी

    दयाराम साहब की भूतमका एक आश्रयदािा, मागष-तनदशेक या दिर आदशेदािा की ह,ै न दक अनुवादक की।

    क्योंदक ‘दयाराम की आज्ञा’ जैसी पंतक्तयों स ेवैसा कोई भाव नहीं तनकलिा। अब प्रश्न उठिा ह ैदक यदद दयाराम

    साहब इस अनुवाद के आश्रयदािा रह ेिो इसका अनुवादक कौन ह ै? इस प्रश्न का उत्तर दनेा करठन ही नहीं

    प्रमयुि् अब िो असंभव भी ह ैक्योंदक अनुवादक ने दयाराम साहब के प्रति अपनी कृिज्ञिा िो ज्ञातपि कर दी

    दकन्िु उसने अपने तवर्य में कुछ भी नहीं तलखा ह।ै अनुवाद के प्रारंभ में अथवा कहीं भी इस प्रकार का कोई

    तववरण उपलब्ध नहीं तजसस ेहम अनुवादक के तवर्य में कुछ प्रामातणक जानकारी प्राप्त कर सकें ।

    तजन मंुशी दयाराम की चचाष अनुवादक अपने अुनवाद में की ह ै स्वयं उन मंुशी साहब का भी कोई

    तववरण स्वयं तहन्दी सातहमय के दकसी भी इतिहास ग्रन्थ या दिर कोश आदद ग्रन्थ में भी उपलब्ध नहीं। इस

    प्रकार के तववरण के तलए प्रस्िुि पंतक्तयों के लेखक ने अनेकानके तहन्दी सातहमय के इतिहास-ग्रन्थ एवं कोश-

    ग्रन्थों का अवलोकन दकया ह ैदकन्ि ुआज िक उस ेइस ओर ितनक भी सिलिा नहीं तमल सकी। यहा ंयह बिाना

    भी आवश्यक ह ैदक इस अनवुाद के प्रकातशि संस्करण में दो पंतक्तयों की भूतमका भी नहीं तलखी गई ह ैतजसके

    कारण उपयुषक्त ज्ञािव्य िथ्यों पर ितनक भी प्रकाश नहीं पड़िा।

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    अनुवाद की उपयुषक्त अतन्िम पुतष्पका से प्रस्िुि अनुवाद का प्रामातणक काल ज्ञाि हो जािा ह ैऔर वह

    ह ैतवक्रम संवि ्१९५९ का क्वार महीना अथाषि ्ईस्वी सन् १९०२। इसके अनुसार यह इस अनुवाद का सौभाग्य

    ही कहा जाएगा इसे अपनी रचना के िुरन्ि बाद प्रकाशन का सौभाग्य प्राप्त हो गया और इसका सारा शे्रय इस

    अनुवाद के आश्रयदािा मंुशी दयाराम साहब को जािा ह।ै

    आल्हा'-छन्द

    संस्कृि के तजन ग्रन्थों के तहन्दी अनुवाद तपछली कई शिातब्दयों में दकए और कराए गए उनमें ऐसे

    अनुवादों की संख्या यद्यतप अतधक ह ैजो तवशुद्ध गद्य में प्रणीि हुए दकन्िु इनमें ऐसे अनुवादों की संख्या भी

    अतधक ह ैतजन्हें हम पद्यानुवाद कह सकि ेहैं। यहा ंध्यान दनेे योग्य िथ्य यह ह ैदक तजन अनुवादों को पद्य में

    प्रस्िुि दकया गया उनके छन्द तनधाषरण में संस्कृि एवं तहन्दी हपगल-परंपरा के प्रतसद्ध एवं प्रचतलि छन्द की ही

    अमयतधक सहायिा ली गई। दोहा, चौपाई, सोरठा, कतवत्त, सवैया, भुजंगी, तत्रभंगी, द्रिुतवलतभबि, पंचचामर,

    स्रतग्वणी िथा गेय छन्दों में तवतवध प्रकार के मध्ययुगीन एवं आधुतनक छन्दों का प्रयोग इन अनुवादों की अपनी

    तवशेर्िा ह।ै दकन्िु मनुस्मृति के प्रस्िुि अनुवाद में इस प्रकार के दकसी परंपरागि और रूि छन्दों का प्रयोग नहीं

    दकया गया ह ैअगमया अनुवादक ने इसके तलए पूवष एवं पतश्चमोत्तर भारि में सबसे अतधक प्रचतलि छन्द 'आल्हा'

    का प्रयोग दकया। हम इसे प्रस्िुि अनुवादक की उमकि काव्य-प्रतिभा, छन्द-तवशेर्ज्ञिा और तवलक्षण अनुवाद-

    कला का चूडान्ि तनदशषन कहेंगे दक उसन ेमनुस्मृति के प्रस्िुि अनुवाद में एक ऐस ेछन्द का प्रयोग दकया जो दक

    यद्यतप तहन्दी-भार्ी भारिीय प्रदशेों, यथा उत्तरप्रदशे, तबहार, मध्यप्रदशे, राजस्थान, पंजाब, हररयाणा आदद में

    अमयतधक लोकतप्रय ह ैदकन्ि ुकाव्य-प्रणयन अथवा दकसी भार्ान्िर के ग्रन्थ के अनुवाद की भार्ा के रूप में इस

    छन्द का प्रयोग नहीं के बराबर दकया जािा। स्वयं एक लोकतप्रय छन्द होन ेके बाद भी इस छन्द में तवर्ेश काव्यों

    का प्रणयन भी नहीं दकया गया, हां वीर-रसाममक प्रबन्धों के प्रणयन में यदा कदा इस छन्द का प्रयोग अवश्य ही

    कतवयों न ेदकया ह।ै

    यहां आल्हा-छन्द के बारे में कुछ पररचचाष आवश्यक ह ैऔर इस पररचचाष को प्रारभभ करन ेस ेपूवष ही

    यहां यह सूतचि कर दनेा उतचि होगा दक वस्िुिः ‘आल्हा’ नामका कोई छन्द तहन्दी की हपगल-परंपरा में

    उपलब्ध नहीं ह।ै प्रस्िुि पंतक्तयों के लेखक ने जब इस अनुवाद पर कायष करना प्रारंभ दकया था िो इसके छन्द के

    तलए उसन े तहन्दी हपगल-परंपरा की प्रख्याि पुस्िकों का अवलोकन कर उनमें इस छन्द को ढंूििा रहा दकन्ि ु

    दकसी भी पुस्िक में ‘आल्हा’ नामक छन्द के दशषन नहीं हुए। संदहे होन ेपर जब कोश-ग्रन्थों की सहायिा ली गई

    िो इस रहस्य से पदाष उठा दक तहन्दी की हपगल-परंपरा में आल्हा नामका कोई छन्द नहीं ह ैअतपिु तजसे आल्हा

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    कहकर संबोतधि दकया जािा ह ै वह तहन्दी का ‘वीर-छन्द’ ह ै जो दक ‘आल्हाखण्ड’1 तजसका सातहतमयक

    अतभधान ‘परमाल- रासो’ ह;ै -से संबद्ध होन ेमात्र से सामान्य जन-जीवन में आल्हा-छन्द के नाम स ेप्रतसद्ध हो

    गया। कोश में इस रहस्य पर यूं प्रकाश डाला गया ह ै– ‘संपूणष आल्हाखण्ड वीर-छन्द में ह ैजो आल्हाखण्ड से

    संबद्ध हो जान ेके बाद स ेलोक में आल्हा- छन्द कहलािा ह।ै इस में तवर्यानुरूप ओजपूणष गेयिा ह।ै’2

    इससे यह तसद्ध होिा ह ैदक मनुस्मृति के इस अनुवाद में आल्हाखण्ड में प्रयुक्त वीर-छन्द का ही प्रयोग

    दकया गया ह।ै

    अब ‘वीर-छन्द’ के तवर्य में भी कुछ चचाष कर लेना उतचि जान पड़िा ह।ै छन्दःशास्त्र के विषमान

    अनुसंतधमसुओं और समीक्षकों के अनुसार – प्राचीन संस्कृि-अपभ्रंश परंपरा में वीर छन्द स ेसाभय रखने वाला

    कोई छन्द उपलब्ध नहीं होिा। अपभ्रंश-सातहमय िथा पृथ्वीराजरासो में भी इसका कहीं अिा पिा नहीं दकन्ि ु

    13 वीं शिाब्दी के महाकतव जगतनक के आल्हा से इसका पूरा लय-साभय ह।ै इसीतलए यह आल्हा भी कहा जािा

    ह।ै आल्हा नामकरण का आधार स्वयं महाकतव जगतनक का यह उद्धरण ह ै तजस े छन्दःप्रभाकर' (पृ.-४) के

    रचतयिा न ेतनम्नवि् सूतचि दकया ह ै‘यह ैकहावि आल्हा छन्द ह’ै।

    वीरछन्द का प्रारतभभक प्रयोग गोरखबानी में उपलब्ध होिा ह ै तजसमें तवतवध प्रकार की सुधार की

    आवश्यकिा होिी ह।ै गोरबानी' के संपादकों एवं समीक्षकों न ेऐसे पदों में प्रयुक्त छन्दः का प्रामातणक अतभधान

    प्रस्िुि करन ेमें असमथषिा जिाई ह ैदकन्ि ुबाद के छन्दःसमीक्षकों ने स्पि दकया दक ‘गोरखबानी’ के ऐस ेपदों में

    हम वीरछन्दः का प्रारतभभक रूप पा सकि ेहैं।3

    1 आल्हाखण्ड' बुन्दलेखण्ड के परमार' क्षतत्रय-वीरों के एक वंश की वीरिा एव ंउनके द्वारा लड़े गए युद्ध आदद का तनरूपक महाकाव्य है

    तजसका प्रधान रस वीर ह।ै इस महाकाव्य के नायक आल्हा एव ंऊदल नामके दो भाई हैं जो दक आठ भाई थे। इनके तपिा भी एक

    महान् वीर, योद्धा एव ंसेनानी थे। आठों भाईयों के चररत्र, तववाह एवं उनके द्वारा लड़ी गई लड़ाईयों का बहुि ही रोचक वणषन इस

    महाकाव्य में प्रस्िुि दकया गया ह।ै तहन्दी सातहमय में इसे वीरगाथा-काल का महाकाव्य स्वीकार दकया जािा है और इसका समय १४

    वीं शिी का प्रारतभभक भाग बिाया जािा ह।ै महाकाव्य के नायकों में आल्हा एक आदशष वीर, चररत्रवान् पुरुर् एव ंमयाषददि आचरण

    का प्रस्िोिा है जबदक ऊदल एक उद्धि दकन्िु प्रचण्ड पराक्रमी, दसूरों की ललकार पर कूद पड़ने वाला, चंचल एव ंरंगीन तमजाज ह।ै

    इन नायकों का चररत्र कालान्िर में सामान्य जनिा में इिना अतधक लोकतप्रय हुआ दक समग्र ‘आल्हाखण्ड’ ही सामान्य तहन्दी भार्ी

    जनिा के कण्ठों का हार बन गया। तपछली कई शिातब्दयों स ेसामान्य जन-जीवन में इसके खण्डों/समयों/भागों िथा वृत्तान्िों एवं

    लड़ाईयों को बड़े ही चाव से तवतवध वाद्य-यन्त्रों के साथ गाया, सुना एव ंसुनाया जािा ह।ै 2 तहन्दी सातहमय कोश, भाग-२, धीरेन्द्र वमाष िथा ‘तहन्दी तवश्वकोर्, (नागरीप्रचाररणी सभा, काशी) भाग-१, पृ.-४५०.

    3 ‘गोरखबानी’ में इसका एक उदाहरण इस प्रकार प्राप्त होिा है दकन्िु इसमें कुछ सुधार की आवश्यकिा ह ैतजस ेकोिक में ददया ह ै- मािा हमारी मनसा बोतलय ेतपिा (बोतलय)े तनरंजन (तन) (नी) राकार।

    गुरू हमारे अिीि बोतलय ेतजतन दकया हपड का उद्धार।।

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    गोरखबानी के बाद इस छन्द का पुनः प्रयोग हम प्रख्याि मैतथल-कतव; तजन्हें मैतथलकोदकल कहकर

    पुकारा जािा ह,ै मैथली, संस्कृि, अपभ्रंश आदद सातहमय के तवशु्रि सातहमयकार महाकतव तवद्यापति के पदों में

    दखेिे हैं।4

    तहन्दी-सातहमय के मध्यकाल में तनगुषण भतक्त-काव्य की परंपरा में पुनः कबीर न ेइस छन्द का प्रारतभभक

    िथा अमयल्प प्रयोग दकया ह।ै संपूणष कबीर-सातहमय में वीर-छन्द के केवल िीन पद उपलब्ध होि ेहैं (वचनावली-

    १२१,२१९, िथा ग्रन्थावतल- परर.-११३)। यहां यह भी ध्यािव्य ह ै दक तवद्यापति में वीरछन्द का तबलकुल

    स्विंत्र पद नहीं तमलिा और जो तमलिा ह ैउसे हम इस छन्द का प्रारतभभक स्वरूप ही कह सकि ेहैं दकन्िु यहा ं

    कबीर के िीनों पदों में इस छन्द का प्रयोग कुछ पररष्कृि रूप में िथा आद्योपान्ि हुआ ह।ै5

    कबीर के बाद सरूदास न ेइस छन्द का बहुि ही पररष्कृि रूप प्रस्िुि दकया ह ैऔर संख्या की दतृि से सूर

    न ेकबीर स ेअतधक इन छन्दों की रचना की ह।ै6

    डॉ. हजारी प्रसाद तद्ववेदी न ेतलखा ह ै– ‘सभी छन्दों और काव्यरूपों को राममय करन ेवाल ेिुलसीदास

    न ेआल्हा या वीर-छन्द में को नहीं अपनाया।’7 दकन्ि ुआचायष तद्ववेदी जी की यह मान्यिा ग़लि ह ैऔर हम यह

    दखेिे हैं दक िुलसी ने ‘वीरछन्द’ में समग्र रामचररि की रचना िो नहीं दकन्ि ुअपने काव्यों में कई स्थान पर इस

    छन्द का प्रयोग दकया ह ैऔर समग्र िुलसी-सातहमय में हम ११ वीरछन्द के पदों को प्राप्त करि ेहैं।8

    4 स्रम भर गतलि लतुलि कबरीयिु मालति माल तवथारल मोति।

    समय वसिं रास-रस वणषन तवद्यापति मति छोतभि होति।। (पद-१८४) 5 सुरपरु लूि नागपुर लूिा िीन लोक मचा हाहाकार।

    ब्रह्मा लूिे महादेव लिेू नारद मतुन के परी तपछार ।।

    हस्रगी की हमगी करर डारी पारासर कै उदर तवदार।

    कनिंूका तचदकासी लूिे लूिे जोगसेर करि तवचार।।

    (कबीरवचनावली, पद-२१९, संपादक - अयोध्याहसह उपाध्याय ‘हररऔध’) 6 यहां हम सूरदास के दो पद प्रस्िुि कर दिेे हैं तवशेर् तववरण हिेु सूरसागर में ऐस ेपदों को िंूिना चातहए -

    िल पर पुहुप, पुहुप पर पल्लव, िा पर सुक, तपक, मगृमद काग।

    खंजन धनुर्, चंद्रमा ऊपर, िा ऊपर इक मतनधर नाग।।

    अगं-अगं प्रति और और छतव, उपमा िा को करि न मयाग।

    सूरदास प्रभ ुतपयौ सुधारस मानौ अधरन के बड़ भाग।।

    (सूरसागर, पद-२७ एवं २८ नागरीप्रचाररणी से संपाददि) 7 तहन्दी सातहमय का आददकाल, पृ.-१६ पर पाद-रिप्पणी।

    8 यहा ंहम एक उदाहरण प्रस्िुि कर दिेे हैं, अतधक जानकारी के तलए िुलसी के तवतवध काव्यों का अनुशीलन करना चातहए - सवेि सुलभ उदार कल्पिरु, पारबिी-पति परम सजुान।

    देहु कामररप ुरामचररि-रति िुलसीदास कह ँकृपातनधान।। (तवनयपतत्रका' पद-३)

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    जगतनक के बाद वीरछन्द की एक प्रकार स े तवलुप्त यह परंपरा तपछली शिाब्दी िक चलिी आई ह।ै

    आधुतनक काल में विषमान तहन्दी (खड़ी बोली) के जनक तहन्दी के स्वनामधन्य सेवी आदरणीय बाबू हररश्चन्द्र न े

    भी अपने काव्यों में इस छन्द का प्रयोग दकया ह ैदकन्िु इस छन्द का प्रयोग उन्होंन ेअपने पदों िक ही सीतमि

    रखा, इसमें दकसी प्रकार के दकसी काव्य की रचना नहीं की।9

    इसके बाद के कतवयों में अयोध्या हसह उपाध्याय ‘हररऔध’ जी न ेभी इस छन्द का बहुिायि प्रयोग

    दकया ह।ै10 स्वयं मैतथलीशरण गुप्त भी इस छन्द में कतविा करन ेसे अपने को रोक नहीं सके और हम दखेिे हैं दक

    उनके सुप्रख्याि महाकाव्य ‘साकेि’ में इस छन्द का प्रयोग दतृिगि होिा ह।ै11 यही नहीं गुप्त जी ने अपने

    अन्यान्य काव्यों में भी इस छन्द का खूब प्रयोग दकया ह।ै

    वीरछन्द के उपयुषक्त प्रयोगों के बावजूद हम इस िथ्य स ेमंुह नहीं मोड़ सकि ेदक तवगि कई शिातब्दयों

    स ेतनरन्िर तवकासशील तहन्दी सातहमय के तनमाषण में स्विंत्र-काव्यों के तनमाषण हिे ुइस छन्द का प्रयोग नहीं के

    बराबर दकया गया। वीर- रसाममक काव्यों की यद्यतप एक सुतवस्िृि शंृखला इन शिातब्दयों में प्रस्िुि हुईं दकन्िु

    दकसी कतव न ेअपने प्रबन्ध के तलए इस छन्द का स्विंत्र प्रयोग नहीं दकया।

    इस प्रकार हम दखेिे हैं दक मनुस्मृति के इस अनुवादक ने अपने अनुवाद के तलए विषमान युगीन

    सातहतमयक-समाज हिे ुएक सवषथा नवीन एवं तहन्दी सातहमय में नहीं के बराबर उपयोग होन ेवाल ेछन्द का

    प्रयोग कर अपनी तजस छन्दःप्रयोग की कुशलिा का पररचय ददया वह तचरस्मरणीय ह।ै अस्िु अनुवाद के

    छन्दोतवधान की चचाष के बाद अब हम प्रस्िुि अनुवाद की शैली एवं काव्याममक सौन्दयष पर कुछ चचाष करना

    आवश्यक समझिे हैं। मनुस्मृति के प्रथम अध्याय ‘मनमुकेाग्रमासीनम’् से यह अनुवाद तनम्नवि् प्रारभभ होिा ह ै-

    ऋतर् मतुनयन न ेकरी सलाहें मन ुके तनकि पधारे जाय।

    तवतधवि ्उनको पजून करके बोल ेवचन आज्ञा पाय।।

    वणष धमष अरु वदे भदे में तनमयकमष आददक सब काज।

    वेद तवधािा के तवधान में परूण आप तनपणु महाराज ।।

    9 यहां हम एक उदाहरण मात्र प्रस्िुि करिे हैं -

    सकल कला-पूरन गनु-सागर नागर नेही नवलदकसोर।

    हरीचदं रतसकन के सवषस इन प ैवारौं मैंन करोर।। (कृष्णचररत्र, पद-१२) 10 ह ैतवकराल काल-कापातलक क्रीड़ा-रि ले तवपुल कपाल। काली बहुि दकलदकलािी ह ैमणु्डमातलनी बन सब काल ।। (पाररजाि, सगष-९, रक्तपाि, पृ.-२६३) 11 जयति कतपध्वज के कृपाल ुकतव, वेद-परुाण-तवधािा व्यास। तजनके अमर तगरातश्रि हैं सब धमष, नीति, दशषन, इतिहास।।

    बरसें बीि गईं, पर अब भी है साकेिपुरी में राि।

    िदतप राि चाह ेतजिनी हो उसके पीछे एक प्रभाि।। (साकेि, सगष-११)

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    इिनी सनु के मन ुजी बोल ेऋतर्यों सतुन लवे कान लगाय।

    महाप्रलय की तबररया ंमें जग प्रकृिी रूप रह्यो यह भाय।।

    मनु की सृति प्रदक्रया एक दाशषतनक धरािल पर प्रस्िुि ह ैऔर प्रायः ही सृति-प्रदक्रया (तजसमें सांख्य-

    दशषन की गूि एवं जरिल प्रदक्रयाओं व तसद्धान्िों का समावेश हुआ करिा ह)ै; को सुगमिा से नहीं जाना जा

    सकिा। इन दाशषतनक तसद्धान्िों को समझने हिे ुएक तवशेर् प्रकार की पररतस्थति, बुतद्ध, ज्ञान आदद पृिभूतम का

    होना आवश्यक होिा ह ैऔर कभी कभी िो इिना सब कुछ होि ेहुए भी यह जरिल ही बना रहिा ह।ै दकन्िु इस

    प्रसंग में हम प्रस्िुि अनुवादक की अनुवाद-कला की और उसस ेअतधक उसके छन्दों िथा काव्यकला की प्रशंसा

    करेंगे तजसके कारण मनु की दाशषतनक पृिभूतम पर अवतस्थि सृति प्रदक्रया अमयन्ि सरल, सरस िथा हृदयावजषक

    बन जािी ह।ै सामान्य रूप से जहां सृति प्रदक्रया को पििे अथवा समझिे समय पाठक को बोररयि होन ेलगिी

    ह ै और ऊबकर वह इस प्रसंग स े भाग खड़ा होिा ह ै वहीं आल्हा में तनबद्ध यह प्रदक्रया अपनी ओर एक

    स्वाभातवक कुिूहल बनाए रखिी ह ै और काव्य एवं अनुवाद-कला पाठकों को अतग्रम वृत्तान्िों को पिने हिे ु

    पे्रररि दकए रहिी ह।ै सांख्य पर आधाररि मन ुकी सृति-प्रदक्रया प्रस्िुि आल्हा छन्दों में दतेखए -

    जो अतनमय आकार रतहि ह ैसो अब आपहह प्रगिो आय।

    प्रजा बनान ेकी इच्छा कर अगं सों अप ित्त्व दयो बनाय।।

    िा में सयूष-प्रभा सम अण ुको बीजहह करो आरोतपि भाय।

    िा अण्ड ेमें वह परमशे्वर आपतह प्रगि आपतह प्रगि भयो ह ैआय।।

    नर जो नाम ह ैपरमाममा को िाि ेनारा या अप होि।

    जाही कारण परमेश्र को नारायण भयो नाम उदोि।।

    + + + + + + + + + + + + + + + + + + +

    लोक पथृी आकाश ददशा अरु जल थल स्थान रचो सब भाय।

    जगकिाष न ेतनज प्रकृिी सों मन उमपन्न करो मन लाय।।

    अहकंार मन स ेकरो पदैा रज सि िम गणु दय ेबनाय।

    महान ्आममा को उपजायो इंद्री पाचं रचीं तबलगाय।।

    अहकंार इंदद्रन के बल सों जीव चराचर रच ेसधुार।

    सदा छहें यह आश्रय रहि ेजानो जगि दहे किाषर।।

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    पचं भिू अरु मन किाष ह्न ैजग के काज करि ददन राि।

    अतवनाशी ईश्वर इन सबसों नाशवान जग रचिहह जाि।।

    + + + + + + + + + + + + + + + + + + +

    लोक बिैब ेकी इच्छा सों मुख भजु पेि पांव सम जान।

    ब्राह्मण क्षत्री वैश्य शदू्र को पदैा करो श्रीभगवान।।

    जगद्रपू दहेी अपनी के दो दो भाग करे किाषर।

    आधो भाग पुरुर् का जानों आध ेमातंह रची ह ैनार।।

    भारिीय कालमान और काल-गणना का अपना एक गौरवशाली महत्त्व और ससंार की प्राचीन

    संस्कृतियों की कालगणना के इतिहास में इसे सवाषतधक वैज्ञातनक कालमान होन ेका गौरव प्राप्त ह।ै काल के इिन े

    सूक्ष्मिम भेद-प्रभेदों का वैज्ञातनक तनरूपण संसार की दकसी भी प्राचीन संस्कृति में अनुपलब्ध ह।ै संस्कृि के

    पाररभातर्क शब्दों एवं वाक्य-तवन्यासों के कुचक्र में यह कालमान और कालगणना कई बार सामान्य व्यतक्तयों

    की समझ से बाहर का तवर्य हो जािा ह।ै इस कालगणना को एक नए जामें में दतेखए :

    पलक मारन ेके असाष को नाम तनमरे्' लहेु पतहचान।

    पलक अठारह के तगरव ेमें कािा' नाम लयो ह ैमान।।

    िीस कािा कला' कहावि ज ेतमल िीस महुरि होय।

    िीस महुिष तमलाय ेसन ि ेददन और राि होि ह ैसोय।।

    दवे मनजु के दाि ददना को सरूज बांि करि ह ैभाय ।

    राि मनषु्यन के सोयव ेको ददन में काम करैं मन लाय।।

    एक मनषु्यन के मतहना को एक ददन राि तमत्र पतहचान।

    कृष्ण पक्ष को ददन िमु समझो उजरो पाखं राि लवे जान।।

    बरस मनुष्यन की दवेों का एक ददन राि होि या भािं।

    सयूष उत्तरायण ददन जानों और दतक्षणायन जानो राि ।।

    चन्द्रलोक वासी तपिरों की जानो एक मास ददन राि ।

    और सयूषलोक-वासी सब सरु हैं िासों एक वर्ष ददन राि।।

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    वर्ष िीन सौ साठ मनजु की होव ैएक दवै की साल।

    ऐसी चार सहस बरसन को सियगु मान लयो ह ैकाल।।

    आदद अिंकी सधं्या क्रम स ेचार चार सौ वर्ष तवचार।

    अड़िातलस सौ दवे वर्ष को सियगु अस मानों किाषर।।

    छत्तीस सौ बरसें त्रिेा की चौतबस सौ द्वापर परमाण।

    कतलयगु बारह सौ बरसन को यह सब वर्ष दवे अनुमान।।

    बारह सहस दवै बरसन के चारहु यगु जो कह ेमतुनराय।

    सब तमल एक दवै यगु मानो ऐसो जान लवे ि ुभाय।।

    दवै सहस्र युगन को तमल के ददन ब्रह्मा को एक लयो मान।

    जोइ परमाण राि को कीन्हों यो ददन राि तवधािा जान।। (पृि-५)

    चारों वणों के जो किषव्य मनु न ेबिाए हैं वे आल्हा की मधुर ध्वतन और संपे्रर्ण की धारावातहकिा को

    पाकर और भी सरस, सरल सुरुतचपूणष हो गए हैं :

    ब्राह्मण क्षत्री वैश्य शदू्र के जदु ेजदु ेकमों को कर दिे।।

    ब्राह्मण के छः कमष बनाय दय ेपिबो और पिैबो मान।

    यज्ञ करैबो अरु करबो ह ैलबैो दबैो दान को जान।।

    रक्षा प्रजा दान दवेो अरु पदिबो यज्ञ करव िमु मान।

    तवर्यों में िंसब ेचतहय ेना य ेक्षत्री के कमष लवे जान।।

    पशुपालन औ' दान को दवेो यज्ञ करन पिबो व्यौपार।

    खिेी करम व्याज को लवेो कमष वैश्य रच दयो किाषर।।

    शूद्र कमष एकतह बिलाया िीनहु वणष कह ेहैं जोइ।

    तनन्दा रतहि खुशामद कररबो दसूर काम न जान ेकोइ।। (पृ.-६)

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    वृहत्तर-भारि के भूगोल को वर्तणि कर मनु महाराज न ेबड़ी कृपा की थी। पिा नहीं भारि का यह

    मानतचत्र; जैसा दक मन ुन ेप्रस्िुि दकया ह,ै वैसा ही या दिर बाद के मनुभमानी ओर दसूरों की ििी में िांग

    अड़ाने वाल ेअतड़लय लेखकों द्वारा संशोतधि, पररवर्तधि या दिर तवकृि :

    सरसिुी दरृ्द्विी दवेन की नददयन बीच दशे जो आइ।

    िातह बसायो ह ैसरु िाको आयाषविष कहि हैं भाइ।।

    परंपरा स ेचार वणष और वणषसकंरों को आचार।

    सदाचार िाके कतहयि ह ैऐसो जी में लहेु तवचार।।

    कुरुक्षते्र स ेममस्यदशे लों पंचाल शरू सरैक जो आइ।

    यह ब्रह्मर्तर् दशे कतहयि ह ैब्रह्माविष स ेनरेे भाइ।।

    इन दशेन के पैदा ब्राह्मन तिन सों सब मनषु्य ससंार।

    तनज तनज कामों की तशक्षा लें ऐसी सनु लेव बाि हमार।।

    बीच तहमालय हवध्याचल के जो सरस्वति के परूब आइ ।

    औ प्रयाग के पतश्चम माहीं मध्यदशे कतहयि ह ैभाइ।।

    परूब सागर के पतश्चम के सागर लों जो दशे ह ैभाइ।

    बीच तहमालय हवध्याचल भतूम आयाषविष कहाइ।।

    कारो मृग स्वाभातवक उपज ेसो ह ैदशे यज्ञ के जोग।

    जासों परे और दशेन को भलचे्छ दशे जानो सब लोग।। (पृि:८-९)

    जहा ंकहीं धमषशास्त्रीय पाररभातर्क अथवा वाक्य को उसी प्रकार प्रस्िुि करन ेकी आवश्यकिा थी या

    तजन शब्दों या वाक्यों का अखण्ड/िथावि ्रहना आवश्यक था, उन्हें तबना हरे-िेर के उसी प्रकार प्रस्िुि कर

    अनुवादक ने अपनी अनुवाद-कला का पररचय ददया ह।ै इस िथ्य को हम समग्र अनुवाद के यत्र ित्र दखे सकि ेहैं

    जैस े ‘भवति तभक्षा ं दतेह’ या 'तभक्षा ं भवति दतेह’ जसै े वाक्यों का अखण्ड प्रयोग; जो दक धमषशास्त्रीय तवतध-

    व्यवस्था के कारण आवश्यक था; -दकया गया ह।ै

    मनु महाराज को कभी कभी बहुि अतधक धमाषन्ध िथा ब्राह्मणवादी ठहराकर प्रायः उनकी उपेक्षा की

    जािी ह ैदकन्िु अच्छी वस्िुए ंसवषत्र तमल जाया करिी हैं, खोजन ेवाली दतृि होनी चातहए। एक लोक-व्यवहार;

    तजस ेआप संस्कृि की पेचीदगी के कारण नहीं सीख सके थे, आइए उनसे सीतखए -

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    परस्त्री सों बोलन माहीं जासों नािी कछू ना होय ।

    ह ेभविी ! सभुग े! ह ेभतगनी ! बोल ेध्यान रख ेसब कोय।।

    गुणाः पूजास्थानं गुतणर्ु न हलग ंन च वयः'' के आदशष को मनोरंजक स्वर में सुनें, संभव ह ैस्मृति में रह

    जाए और लोकव्यार में सभी स ेकुछ से सीखन ेऔर गुणों को प्राप्त करन ेकी तशक्षा प्राप्त हो जाए -

    तशर के बाल श्विे होयब ेस ेजग में वृद्ध होि कोउ नाहीं।

    यवुा पिो यदद जग में होव ेदवेिा वदृ्ध कहि हैं िातह ।।

    पराई तस्त्रयों, युवतियों, गुरुपत्नी आदद को चरण छूकर प्रणाम नहीं करना चातहए। कारण और उसके

    आलोक में चररत्र-रक्षा, लोक-व्यवहार आदद के िातत्त्वक उपदशे विषमान में दकिन ेलाभप्रद हो सकें गे तवचार

    करें। हा ंआल्हा की मधुरिा का भी आनन्द लेना न भूलें -

    तत्रयन के सगं रह ैना कबह ंयह दिृ सीख धरै जी मातंह ।।

    मा बहनी लड़की के सगंह कबह ंएकान्ि करै नहह बास ।

    अति बलवान इतन्द्रयन कारन तवद्वानहु की ह्न ैमतिनास।।

    गुरुपत्नी युविी जो जग में तनजह युवा दशा को होय ।

    तवन पग छूय ेयथातवतध सों तनि नमस्कार करै भूपर सोय।। (पृ.-२६)

    लोक-व्यवहार की बहुि अच्छी अच्छी बािें मनु ने कही थीं जो कुछ िो काल के तवकराल प्रभाव से और

    कुछ स्वय ंमनु की सन्िान (मानव) के तनज अहकंार-वश अधुना अश्रद्धये हो गईं। कुछ ग्राह्य उपदशे जो बच रह े

    हैं, कुछ तशक्षाए ंजो बच रही हैं उनमें कुछ इस बार दतेखए छन्द बदलकर दकिन ेमधुर स्वर में प्रस्िुि हुई हैं -

    उत्तम तवद्या को शूद्रहु स ेश्रद्धायुक्त ग्रहण कर लइे ।

    मोक्ष उपाय चह ैमानरु् जो चाण्डालह ग्रहण करेइ।।

    स्त्री-रत्नहह जग माहीं में तजनकुल स ेनीचीह होइ।

    ब्याह तनतमत्त ग्रहण कर लेव ेऐसो जान लवे सब कोइ।।

    तवर् अमिृ तमतश्रि यदद होवें तिहह ि ेअमिृ ग्रहण करेइ।

    बालक ह ि ेतहि वचनन को चतहय ेसदा ग्रहण कर लेइ।।

    यदद वरैी होव ेिाह स ेअच्छे कमष ग्रहण करर लइे।

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    औ अमधे्यहु में स ेजग में सवुणाषददक को ग्रहण करेइ।।

    तवद्या धमष शौच स्त्री को अच्छे वचन रत्न जो आय ।

    और अनके तशल्प तवद्या को सब स ेग्रहण करे सतुन भाय।। (पृि: २७-२८)

    विषमान समाजशातस्त्रयों िथा नारी-पुनजाषगरण के धुरी-वाहकों की दतृि में मनु ने तस्त्रयों के साथ सदा

    अन्याय ही दकया ह ैऔर उन्हें कभी सभमातनि दतृि से नहीं दखेा। दकन्िु मनुस्मृति के आन्िररक परीक्षण से यह

    िथ्य तबलकुल असंबद्ध एवं असमय िो ह ैही ऐसा मानना कोरी मूखषिा भी ह ैक्योंदक मनुस्मृति में स्त्री- अतधकारों

    की एक तवस्िृि व सुतनयोतजि शंृखला उपलब्ध होिी ह।ै तनश्चय ही ये अतधकार विषमान युगीन उत्तर-

    आधुतनकिा वादी एवं नव-संरचनावादी समाज की तस्त्रयों को भी उपलब्ध नहीं और ना ही ऐस ेअतधकारों को

    दकसी सभ्यिम राष्ट्र में महत्त्व ही ददया ही गया ह।ै यहा ंहम मूल मनुस्मृति के कतिपय ऐस ेप्रसंगों को आल्हा-

    ध्वतन में प्रस्िुि कर दिेे हैं जो उपयुषक्त िथ्यों को अतभप्रमातणि करि ेहैं। क्या पिा संस्कृि की करठनाई के कारण

    मूल मनुस्मृति को दखेने की ज़हमि न उठान ेवाले इन समाज-शातस्त्रयों को इस अनुवाद से ही लाभ प्राप्त हो

    जाए -

    स्वामी भाई तपि ुदवेर जो चाहें भला लोक के मातंह।

    वस्त्राभरू्ण स ेतिररयन को पजून करें सदा जी चातंह।।

    तजतह कुिंुब में तस्त्रन केरो आदर होय सदा ददन राि।

    वहा ंवास सब दवे करि हैं ऐसो शास्त्र मातंह प्रख्याि।।

    और जहा ंआदर नहह होिो िह ंका हाल सनुो जी लाइ ।

    वहा ंकमष यज्ञाददक सबरे होवें व्यथष कहो मन ुगाइ।।

    तजतह कुल में स्त्री दःुख पािीं सो कुल शीघ्र नाश ह्न ैजाइ।

    जहा ंशोक इनको नहह होव ेवाकी बििी होय सदाय।।

    पाय तनरादर तजन घर माहंीं कोसें स्त्री जग के माहह।

    तवर् प्रयोग स ेव ेघर मारें सब ओरहह स ेनाश लहाहह।।

    या ि ेजो ऐश्वयष चहि हैं उन पुरुर्न को चतहए यतेह।

    अच्छे काम तववाहाददक में और काम उमसव के जतेह।।

    वस्त्राभरू्ण स ेतस्त्रन को तनि सिकार करे ह ेिाि ।

    जो ह ैउतचि सदा जग माहीं और मन ुकी आज्ञा प्रख्याि ।।

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    तजस कुल में स्त्री स ेपति और पति स ेस्त्री रहें प्रसन्न ।

    वा कुल में तनश्चय िमु जानों ह ैकल्याण अह ैवह धन्न।।

    यदद स्त्री शोतभि ना होव ेिो पति कबहु ंप्रसन्न न होय ।

    औ पति अप्रसन्न होयव ेस ेहोय सिंान न पैदा कोय ।।

    स्त्री वस्त्राभरू्ण स ेशोतभि जो िो कुल की शोभा जान।

    और मतलन वाके होन ेस ेसब कुल मतलन लखौ बुतद्धमान।। (पृि:३३-३४)

    तस्त्रयों के भयंकर तवरोधी और स्त्री-अतधकारों के हनन-किाष मनु के मुख स े ही स्वय ं स्त्री-मतहमा स े

    संबतन्धि कुछ बािों पर भी ध्यान दें -

    लोकाचार सदा शभु अबलौं दपंति केरे कह ेसनुाइ ।

    सखु के हिे ुदोउ लोकन में सिंति धमष सनुो मन लाइ।।

    बड़ी भाग्य वाली स्त्री हैं अरु सिंान हिे ुय ेआहह।

    और सदा समकार योग्य हैं अरु घर की शोभा जग माहह।।

    स्त्री और लक्ष्मी माहह ह ैकछु भदे न घर को बीच।

    हैं समान दोनों िमु जानों ऐसी मन ुकी नीति नगीच।।

    इस प्रकार यदद समग्र मनुस्मृति के प्रस्िुि अनुवाद का परायण दकया जाए िो यह दखेने को तमलिा ह ै

    दक अन्य अनुवादों में जहा ंएक धारा में या एक प्रवाह में अनुवाद को पिने में नीरसिा, संपे्रर्ण का अभाव, मूल

    और अनुवाद के िथ्यों में असमानिा, अनुवाद की भार्ा-शैली के कारण मूल के िथ्यों को समझने में करठनाई

    िथा अनुवादक एवं अनुवाद को पिने वाल े के बीच तवतवध प्रकार का असामंजस्य आदद दतृिगि होि ेहैं वहीं

    प्रस्िुि अनुवाद को पिने में इस प्रकार की कोई समस्या नहीं आिी और यदद कोई चाह े िो इसके कई-कई

    अध्यायों को तबना रुके या तबना नीरसिा का अनुभव दकए ही पि एवं समझ सकिा ह।ै इस कायष में इस अनुवाद

    की सरल, प्रभावपूणष एवं सरस भार्ा-शैली िो उसका सहयोग करिी ही ह ैअनुवाद का छन्द और इस छन्द का

    शु्रति-माधुयष पाठक को तवशेर् सहायिा प्रदान करिी ह।ै

    तनस्सन्दहे तवगि कई शिातब्दयों के मध्य संस्कृि आदद अन्य भार्ाओं स े अनूददि तहन्दी-अनुवाद-

    सातहमय के इतिहास में मनुस्मृति का यह अनुवाद सबस ेतवलक्षण, दलुषभ एवं उमकृि कोरि का अनुवाद ह ैतजसके

    ऊपर तहन्दी-सातहमय का इतिहास िो गवष कर ही सकिा ह ैस्वयं संस्कृि-सातहमय का इतिहास भी इस अनुवाद

    पर युगों िक गवष करेगा तजसने संस्कृि के एक धमषशास्त्र सरीखे नीरस ग्रन्थ को इस प्रकार के सरस, सरल, सुबोध

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    िथा रुतचकर शैली में अनूददि कर उसे आम जनिा एवं लोक-जीवन में प्रचाररि कर ददया। आवश्यकिा ह ै

    पुस्िकालयों में बन्द पड़े एवं धूल-धूसररि ऐस ेअनूददि ग्रन्थ-रत्नों एवं उनके स्वनामधन्य अनुवादकों को तहन्दी

    एवं संस्कृि सातहमय के तनमषल आकाश में प्रस्िुि करन ेकी, ऐस ेग्रन्थ-रत्नों को सावषजतनक उपयोग का तवर्य

    बनान ेकी।

    सन्दभष-ग्रन्थ-सचूी

    १. गोरखबानी, तवद्यापति, कबीर, सूर, िुलसी, भारिेन्द ु बाबू हररश्चन्द्र, हररऔघ, मैतथलीशरण गुप्त की

    रचनाओं में वीर या आल्हा-छन्द के तलये तनम्नतलतखि पुस्िक का सन्दभष लेना चातहए -

    तमश्र, डॉ. तद्वजेन्द्रनाथ, (लेखक), तहन्दी-सातहमय का छन्दोतवधान, प्र. सं. १९७५ ई., तबहार तहन्दी ग्रन्थ

    अकादमी, पिना.

    २. वमाष, डॉ. धीरेन्द्र, तहन्दी सातहमय कोश, भाग-२, ज्ञानमण्डल तलतमिेड्, वाराणसी.

    ३. तहन्दी तवश्वकोर्, भाग-१, नागरीप्रचाररणी सभा, काशी.