ज֣֠ांग֥֗ज֟ च֤रिक֣ क֣ ֟म्प֣दित ......Pratnakirti, vol.-2,...

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Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694 www.pratnakirti.com 52 Moonlight of the Emperor Jahangir’s Glory जहगीरजस-चरिक क सपᳰित सकरण एव अेज़ी अनुवि A critical edition and highly reached English translation of “Jahangir Jas Candrika” of Keshva Rai, by Stefania Cavaliere - उिय शकर िुबे © - तप कुार ा © [email protected] - - जहगीरजस-चरिक Moonlight of the Emperor Jahangir’s Glory, Jahangir jas candrika, Keshva rai, English translation of जहगीरजसचरिक, Jahangir, Stefania Cavaliere, University “L’Orientale’, UNIVERSITA DEGLI STUDI DI NAPOLI “L’ORIENTALE, Professor Franceso Sferra. हरिी-सहय जगत के शविस कᳯिन-के रचयत ने जते ह। उनकᳱ ाुख रचनएँ 1. राचरिक, 2. रसकय, 3. कवय, 4. वीरᳲसहिेवचᳯरत, 5. जहँगीरजसचरिक, 6. वनगीत तथ 7. रतनबवनी। इना से था तीन रथ भरत के वभ ववलय हरिी के को पढए जते थे अतः इनके कई सकरण टीकयु और बन टीक के , -कशत ए। आचयवनथ सि ; जो ᳰक नगरीचᳯरणी सभ, कशी के खोज वभग के खोज-नरीक भी थे , -ने सवयथा के शविस के सभी उपलध रथ तसाय और उपलध पडुलपय के आधर पर सपिन ᳰकय जो के शव रथवलीके ना से तीन भग सन् १९५५ ईवी हरिुतनी एके डाीइलहबि (उर िेश) से कशत आ। आगे के सभी वन् तथ साीक ने आचयजी के उपयुइसी रथवली को अपन आधर बनय। के शविस रचत अरय रथ - रतन-बवनी’, ‘वीरᳲसहिेव-चᳯरत’, ‘जहँगीरजस-चरिकऔर वनगीतकᳱ ओर वन ने बत का यन ᳰिय। इस लल भगवन िउलेख अवय ᳰकय जन चहए जरहने के शव-कौाुिीके अरतगयत इन रथ को सपᳰित कर कशत करय थ। के शव-कौाुिीको ईवी सन् १९६२ रानरयण लल बेनी धवइलहबि ने कशत ᳰकय थ। © - , - , - , . © अखल भरतीय ाुला-सकृत सरण एव य शोध सथन, वरणसी.

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    Moonlight of the Emperor Jahangir’s Glory

    जह ांगीरजस-चन्द्रिक क सम्प दित सांस्करण एवां अांग्रज़ेी अनवु ि

    A critical edition and highly reached English translation of “Jahangir Jas Candrika” of

    Keshva Rai, by Stefania Cavaliere

    - उिय शांकर िबुे ©

    - प्रत प कुा र न्द्ा्र © [email protected]

    - - जह ांगीरजस-चन्द्रिक Moonlight of the Emperor Jahangir’s Glory, Jahangir jas

    candrika, Keshva rai, English translation of जह ांगीरजसचन्द्रिक , Jahangir, Stefania Cavaliere, University “L’Orientale’, UNIVERSITA DEGLI STUDI DI NAPOLI “L’ORIENTALE, Professor Franceso Sferra.

    न्द्हरिी-स न्द्हत्य जगत ाें केशवि स कठिन-क व्य के रचन्द्यत ा ने ज त ेहैं। उनकी प्राुख रचन ए ँहैं –

    1. र ाचन्द्रिक , 2. रन्द्सकन्द्प्रय , 3. कन्द्वन्द्प्रय , 4. वीरससहिवेचठरत, 5. जह ँगीरजसचन्द्रिक , 6. न्द्वज्ञ नगीत

    तथ 7. रतनब वनी। इनाें स ेप्रथा तीन ग्ररथ भ रत के न्द्वन्द्भन्न न्द्वश्वन्द्वद्य लयों ाें न्द्हरिी के छ त्रों को पढ ए

    ज त ेथ ेअतः इनके कई सांस्करण टीक युक्त और न्द्बन टीक के, -प्रक न्द्शत हुए। आच यय न्द्वश्वन थ प्रस ि न्द्ा्र;

    जो दक न गरीप्रच ठरणी सभ , क शी के खोज न्द्वभ ग के खोज-न्द्नरीक्षक भी थ,े -न ेसवयप्रथा केशवि स के सभी

    उपलब्ध ग्ररथों क तत्साय ज्ञ त और उपलब्ध प ण्डुन्द्लन्द्पयों के आध र पर सम्प िन दकय जो ‘केशव

    ग्ररथ वली’ के न ा से तीन भ गों ाें सन ् १९५५ ईस्वी ‘न्द्हरिसु्त नी एकेडाी’ इल ह ब ि (उत्तर प्रिशे) स े

    प्रक न्द्शत हुआ। आगे के सभी न्द्वद्व न ्तथ साीक्षकों न ेआच यय जी के उपयुयक्त इसी ग्ररथ वली को अपन आध र

    बन य । केशवि स रन्द्चत अरय ग्ररथों - ‘रतन-ब वनी’, ‘वीरससहिवे-चठरत’, ‘जह ँगीरजस-चन्द्रिक ’ और

    ‘न्द्वज्ञ नगीत ’ की ओर न्द्वद्व नों न ेबहुत का ध्य न दिय । इस क्रा ाें ल ल भगव न िीन क उल्लेख अवश्य

    दकय ज न च न्द्हए न्द्जरहोंने ‘केशव-कौाुिी’ के अरतगयत इन ग्ररथों को सम्प दित कर प्रक न्द्शत कर य थ ।

    ‘केशव-कौाुिी’ को ईस्वी सन ्१९६२ ाें ‘र ान र यण ल ल बेनी ा धव’ इल ह ब ि न ेप्रक न्द्शत दकय थ ।

    © - , - , - , .

    © अन्द्खल भ रतीय ाुन्द्स्ला-सांस्कृत सांरक्षण एवां प्र च्य शोध सांस्थ न, व र णसी.

    mailto:[email protected]

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    केशवि स की इतर रचन ओं - ‘रतन-ब वनी, ‘वीरससहिवे-चठरत, और ‘जह ँगीरजस-चन्द्रिक ’ को

    न्द्हरिी के न्द्वद्व न ्साीक्षकों ने रीन्द्तक लीन वीर-क व्य के अरतगयत रखकर अपन न्द्वच र प्रकट दकय जबदक य े

    तीनों ही ग्ररथ वीर-रस-प्रध न होत ेहुए भी क व्येन्द्तह स की ्ेरणी ाें आत ेहैं।

    न्द्हरिी-भ ष के दकसी न्द्वद्व न् ने केशव-कृत इन क व्येन्द्तह स-ग्ररथों क पुनःसम्प िन य टीक प्रस्तुत

    करन ेक भ र नहीं उि य । ह ँ इस क्रा ाें डॉ. दकशोरी ल ल (नैनी-इल ह ब ि) क उल्लेख अवश्य दकय ज न

    च न्द्हए न्द्जरहोंने इस गुरुतर भ र को सहषय स्वीक र दकय और उरहोंने क्राशः ‘जह ँगीरजस-चन्द्रिक , ‘न्द्वज्ञ न-

    गीत , और ‘वीरससहिवे-चठरत’ क पुनःसम्प िन और न्द्वस्तृत टीक प्रस्तुत की। य ेतीनों ग्ररथ प्रक न्द्शत हैं।

    हरिी-भ ष और स न्द्हत्य के प्रन्द्त न्द्विशेी न्द्वद्व नों क पे्रा, त्य ग और उनक योगि न अन्द्वस्ारणीय

    रह ह।ै न्द्हरिी के कई सुन्द्वख्य त ग्ररथों की खोज, उनक प ि लोचन, सम्प िन और प्रक शन स्वयां दकतन ेही

    न्द्विशेी न्द्वद्व नों के न्द्हरिी-पे्रा क प्रन्द्तफल ह।ै न्द्हरिी-भ ष और स न्द्हत्य क अध्ययन-अध्य पन, ानन, न्द्चरतन,

    न्द्हरिी-ग्ररथों की सतत खोज, अज्ञ त ग्ररथों की प ण्डुन्द्लन्द्पयों के प ि क व्यवस्थ पन, सम्प िन और प्रक शन

    आज भी भ रत स ेब हर के कई सुिरू िशेों ाें अब ध-रूप से प्रवर्ततत ह।ै न्द्वश्व के कई िशेों के न्द्वश्वन्द्वद्य लयों ाें

    और वैयन्द्क्तक रूप से भी न्द्हरिी-भ ष और उसके स न्द्हत्य पर क यय दकए एवां कर ए ज रह ेहैं। इन क यों ाें

    यद्यन्द्प शोध-क यों की सांख्य अन्द्धक ह ै दकरतु यि -कि ाूल-ग्ररथों क प ि लोचन, प ि-व्यवस्थ पन और

    साीन्द्क्षत प ण्डुन्द्लन्द्पयों के स थ इस प ि क प्रक शन भी हुआ करत ह।ै ाूल-ग्ररथों क अांगे्रजी य तत्तद्दशेीय

    भ ष ओं ाें अनुव ि की पठरप टी आज भी व्यवन्द्स्थत रूप से चली आ रही ह ै जो दक न्द्हरिी-स न्द्हत्य के

    साक लीन वैन्द्श्वक ाहत्त्व को िश यती ह।ै

    यह ँ हा सुिरू िशे इटली स ेसद्यः प्रक न्द्शत एक न्द्हरिी-ग्ररथ-रत्न स ेअपने प िकों को पठरन्द्चत कर न े

    को आतुर हैं। यह ग्ररथ ह ैाह कन्द्व केशवि स-कृत ‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ जो दक ाह न् ाुग़ल सम्र ट् अकबर के

    पुत्र नूरुद्दीन ाुहम्ाि जह ँगीर की प्रशांस ाें प्रणीत हुई थी। न्द्वशुद्ध ऐन्द्तह न्द्सक ाूल्यों के अभ व ाें भी ाह कन्द्व

    केशव क यह ग्ररथ क व्यीय ाूल्यों के सा न रतर ऐन्द्तह न्द्सक िनृ्द्ि से भी परख ज त रह ह ैऔर यही क रण ह ै

    दक न्द्वशुद्ध ‘क व्येन्द्तह स’ न होन ेके ब वज़ूि भी हाने इसे ‘क व्येन्द्तह स’ की ्ेरणी ाें रखने की पैरवी की ह।ै

    अधुन -पययरत उपलब्ध ‘जह गँीरजसचन्द्रिक ’ की प्र यः सभी प्रक न्द्शत प्रन्द्तयों एवां अप्रक न्द्शत (सुलभ)

    प ण्डुन्द्लन्द्पयों के आध र पर ाूल प ि क आलोचन, आलोन्द्चत प ि के आध र पर ाूल प ि क व्यवस्थ पन और

    वैज्ञ न्द्नक पद्धन्द्त पर प ि रतर क प्रस्तुतीकरण करत े हुए इसके सम्प िन तथ MOONLIGHT OF THE

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    EMPEROR JAHAGIR’S CLORY के न ा स ेइस सांस्करण के प्रक शन क यह गुरुतर तथ प्रशांसनीय क यय

    दकय ह ैिरूस्थ िशे ‘इटली’ की -न्द्विषुी ान्द्हल स्तेफेन्द्नय केव न्द्लयेरे (STEFANIA CAVALIERE)

    ने। ३५ पृष्ठों की सांन्द्क्षप्त दकरतु स रगर्तभत भून्द्ाक के स थ ‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ क यह प्रक शन, इस ग्ररथ क

    आलोचन त्ाक सांस्करण तो ह ैही, स्वयां ाें एक अनुव ि-ग्ररथ भी ह ै न्द्जसाें साग्र ‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ क

    अांगे्रजी ाें अनुव ि भी प्रक न्द्शत ह।ै अनुव ि के स थ ही; नीच ेप िठटप्पणी ाें ाूल तत्सा तथ तद्भव शब्िों पर

    की गई ठटप्पन्द्णय ँ, ऐन्द्तह न्द्सक-भौगोन्द्लक ध र्ताक-स ांस्कृन्द्तक तथ स न्द्हन्द्त्यक शब्िों, न्द्ाथकों और सांप्रत्ययों

    पर प्रस्तुत सूचन एां व स्तव ाें सम्प दिक के पठर्रा को अन्द्भव्यक्त करती हैं। इस रूप ाें प्रस्तुत ग्ररथ क यह

    सांस्करण कई रूपों ाें बहुत ही ाहत्त्वपूणय और सांग्रहणीय बन गय ह।ै साूच ग्ररथ २०० से अन्द्धक पृष्ठों ाें

    सा न्द्हत ह।ै

    प्रस्तुत ग्ररथ के प्र रन्द्म्भक पृष्ठों स ेयह स्पि ह ैदक ‘स्तेफेन्द्नय केल न्द्वरे’ ने ‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ को

    अपने शोधक यय के न्द्लए चुन थ और इस चुन व के न्द्लए उनके स्विशेी कई न्द्वद्व न ्प्रोफेसर् क ा गयिशयन प्र प्त

    हुआ। यद्यन्द्प केल न्द्वरे क यह ग्ररथ UNIVERSITA DEGLI STUDI DI NAPOLI “L’ORIENTALE के

    DIPARTIMENTO DI STUDI ASIATICI न्द्वभ ग स ेसञ्च न्द्लत SERIES MINOR की शृङ्खल ाें LXXIII

    सांख्य पर प्रक न्द्शत हुआ ह ै दकरतु केल न्द्वरे को उपयुयक्त न्द्वषय पर शोधक यय के न्द्लए UNIVERSITY OF

    MILAN न ेअध्येत वृन्द्त्त के द्व र आर्तथक सह यत प्रि न की थी। इस प्रशांसनीय शोधक यय ाें केल न्द्वरे’ के शोध-

    न्द्निशेक थ ेPROFESSOR FRANCESCO SFERRA जो दक स्वयां Department of Asian Studies at the

    University “L’Orientale’ ाें न्द्नयुक्त हैं।

    ‘जह गँीर-जसचन्द्रिक ’ : स ा रय पठरचय

    न्द्ववेच्य आलोचन त्ाक सांस्करण क पठरचय प्रस्तुत करन ेसे पूवय यह ँ हा इसके ाूल ग्ररथ ‘जह ँगीर-

    जसचन्द्रिक ’ पर सांन्द्क्षप्त पठरचच य प्रस्तुत कर लेन आवश्यक साझते हैं। केशवि स न े‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ की

    रचन सांवत् १६६९ न्द्वक्राी (सन ्१६१२ ईस्वी) ाें की थी। इस ग्ररथ ाें केशव ने तत्क लीन ाुग़ल-ब िश ह

    जह ँगीर क यशो-वणयन दकय ह।ै ई. सन् १६०५ ाें ाुग़ल सम्र ट् अकबर की ाृत्यु के ब ि श हज िः सलीा,

    नुरुद्दीन ाुहम्ाि जह ँगीर के न ा स े , २४- १६०५ ई. श ही-ससह सन पर बैि ।1

    ब िश ह बनत ेही उसन ेअपने परा न्द्ात्र वीरससह िवे को ‘ओरछ ’ क र ज बन दिय । केशवि स ‘ओरछ ’

    र ज्य के िरब री-कन्द्व थे। अभी तक उरहें र ज इरिजीत और र ाश ह क आ्रय प्र प्त थ । स म्र ज्य-न्द्लप्स ाें

    श हज िः सलीा के न्द्विोह को स्वयां अकबर के न्द्वरोधी वीरससह िवे क स थ न्द्ाल गय थ और इन िोनों के

    ही ाैत्री ाें प्रग ढत आई जह ँगीर के आिशे पर वीरससह िवे द्व र अबुल फज्ल की हत्य कर दिए ज न ेकी नींव

    1. History of Jahangir, page-113.

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    पर।2 यही क रण ह ैदक वीरससह िवे जह ँगीर क न्द्वश्व सप त्र बन गय और ससह सन पर बैिते ही ब िश ह न े

    उसे ‘ओरछ ’ क र ज न्द्नयुक्त कर दिय । पठरन्द्स्थन्द्तयों को िखेते हुए केशवि स ने वीरससह क आ्रय ग्रहण

    दकय । एक तरफ जह ँ केशव ने उपयुयक्त ग्ररथ के द्व र ब िश ह क यशोग न दकय वही िसूरी तरफ

    ‘वीरससहिवे-चठरत’ न्द्लखकर अपने आ्रयि त की कीर्तत क भी न्द्वस्त र दकय ।

    केशव न े‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ ाें जह ँगीर की कीर्तत, रय य और र जवैभव क स न्द्हन्द्त्यक वणयन दकय

    ह।ै क व्यीय वणयनों के क रण कहीं-कहीं अन्द्तरेक य अन्द्तव दित िनृ्द्िगत होत ेहैं दकरतु प्रन्द्तप द्य की प्रकृन्द्त और

    उसके प्रन्द्तप िन ाें ‘कन्द्व-साव य’ क न्द्नव यह इन आरोपों से; परम्पर की भ ांन्द्त केशव को भी बरी कर िते ह।ै

    र ज ओं य आ्रय-ि त ओं की प्रशन्द्स्त न्द्लखन रीन्द्तयुग ाें कन्द्व-काय थ । स्वयां जह ँगीर को ही लक्ष्य कर लें तो

    उस क ल ाें केशव ही नहीं कई भ ष ओं के दकतन ेही कन्द्वयों ने अपने आ्रय-ि त जह ँगीर की प्रशांस ाें कई

    क व्य न्द्लखे। यह ँहा उन सबक न्द्वशे्लषण नहीं करेंगे। सांस्कृत के एक-िो कन्द्वयों और उनकी रचन ओं को सून्द्चत

    कर ितेे हैं।

    केशव के साक लीन प्रथा सांस्कृत-कन्द्व हैं हठरिवे न्द्ा्र ाैन्द्थल, न्द्जरहोंने ‘जह ँगीर-न्द्वरुि वन्द्लः’ न ा स े

    एक प्रशन्द्स्त-परक सांस्कृत-गद्य-क व्य की रचन की।3 इसे क व्य उतन ेही अांश ाें साझन च न्द्हए न्द्जतन ेाें

    भ ष और शैली क आनरि न्द्लय ज सके, अरयथ अरय क व्यीय पक्षों क न्द्नत रत अभ व ह।ै हठरिवे न्द्ा्र की

    भ ष अत्यरत प्रौढ ह,ै पठरन्द्नन्द्ष्ठत सांस्कृत की पिशय्य एकब रगी प िकों को बरबस ब णभट्ट की य ि दिल

    िगेी लेदकन सरसत क अभ व और कथ -न्द्वहीन लेखन की ध र व न्द्हकत उसे उसी क्षण धर तल पर ल िगेी।

    िसूरे कन्द्व हैं, सांस्कृत-स न्द्हत्य के इन्द्तह स के ाूद्धयरय ाह कन्द्व रुि। २० वीं सिी के ाध्य तक रुि-कन्द्व

    को उनकी एका त्र कृन्द्त ‘र ष्ट्रौढवांशाह क व्या्’ के क रण ही ज न और ा न ज त थ लेदकन ब ि को उनकी

    अरय कृन्द्तय ँ भी प्रक श ाें आईं और उनके ाह कन्द्वत्व की स्थ पन ाें अाूल्य योगि न दिय । रुि-कन्द्व

    ब गुल न के र ज न र यण श ह के पुत्र प्रत प श ह के िरब री कन्द्व थे।4 यह ाहज सांयोग ह ैदक ाह न ्ाुग़ल-

    सम्र ट् अकबर के न्द्नधन से कुछ ही वषय पूवय उनके न्द्ात्र न र यण श ह क न्द्नधन हो गय थ और अकबर के पुत्र

    जह ँगीर के ससह सन पर बैिने से कुछ ही वषय पूवय ब गुल न के ससह सन पर न र यण श ह क पुत्र प्रत प श ह

    आरूढ हुआ थ । जह ँगीर के िन्द्क्षण अन्द्भय न ाें ब गुल न पर सांकट आय और ाुग़ल-आक्राण से बचने के न्द्लए

    प्रत प श ह ने जह ँगीर, उसके सेन पन्द्त अब्िरुयहीा ख़ ां रहीा, ि न्द्नय ल और स्वयां श हजह ँतक की प्रशन्द्स्त ाें

    2. न्द्व’शेष न्द्ववरण हतेु िेन्द्खए : History of Jahangir, pp. 43-45. 3. यह ग्ररथ Ganganatha Jha Research Institute, Allahabad से प्रक न्द्शत ह.ै

    4. न्द्व’शेष न्द्ववरण हतेु िेन्द्खए – र ष्ट्रौढवांशाह क व्या्, सगय-२० और िेन्द्खए – नव बख नख न चठरता्, पृष्ठ : १८-४३.

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    रुि-कन्द्व से रचन एां कर ईं। जह ँगीर की प्रशन्द्स्त ाें रुि-कन्द्व ने जो रचन की वह चम्पू-न्द्वध ाें

    ‘जह ँगीरचठरता्’ के न ा से प्रन्द्सद्ध हुई। िभु यग्य से यह रचन अभी तक अनुपलब्ध और अप्रक न्द्शत ही ह ैअरय

    रचन ओं ाें ‘नव बख नख न चठरता्’ २००७ ई. ाें न्द्हरिी-अनुव ि के स थ प्रक न्द्शत ह।ै

    अस्तु, इस प्रक र िखेें तो केशव न ेअपने युग-स पेक्ष क व्य-रचन -क रणों के अनुरूप अपने आ्रय-ि त

    की प्रशन्द्स्त ाें यह क व्य न्द्लख जो आगे चलकर न्द्हरिी-स न्द्हत्य ाें क व्येन्द्तह स य वीर-क व्यों की परम्पर क

    एक प्राुख क व्य-ग्ररथ के रूप ाें प्रन्द्तन्द्ष्ठत हुआ। भ रत ाें इसके कई सांस्करण प्रक न्द्शत हुए न्द्जनाें तीन सांस्करणों

    पर हा पीछे चच य कर आए हैं। ‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ क न्द्विशे स ेसम्प दित दकसी सांस्करण की अथव उसके

    अांगे्रजी-अनुव ि की कोई सूचन हा रे प स नहीं ह।ै बहुत ा यनों ाें प्रस्तुत साीक्ष्य ग्ररथ; स्तेफेन्द्नय केल न्द्वरे

    क यह सांस्करण ‘प्रथा वैिने्द्शकक’ सांस्करण और ‘प्रथा अांगे्रजी-अनुव ि’ होन ेक सौभ ग्य प्र प्त करत ह।ै

    सम्प दित ग्ररथ की प्रकृन्द्त

    साीक्ष्य ग्ररथ अपने ाूल रूप ाें च र भ गों ाें ब ांट ज सकत ह।ै प्रथा भ ग ाें प्र स्त वन

    Acknowledgments, भून्द्ाक Intoduction तथ Conspectus Siglorum ‘आलेन्द्चत प ण्डुन्द्लन्द्पयों क

    पठरचय’ शीषयक को रख ज सकत ह।ै ‘प्रस्त वन ’ खण्ड ाें सम्प दिक न ेअपने शोध-क यय के न्द्वषय ाें सांन्द्क्षप्त

    सूचन िी ह ैऔर यहीं अपने न्द्वश्वन्द्वद्य लय और वह ँ न्द्नयुक्त अपने शोध-न्द्निशेक क स्ारण दकय ह।ै आगे

    चलकर UNIVERSITA DEGLI STUDI DI NAPOLI “L’ORIENTALE और इसके DEPARTIMENTO DI

    STUDI ASIATICI द्व र सञ्च न्द्लत Series Minor शृांखल के अध्यधीन अपने ग्ररथ के प्रक न्द्शत होने पर इस

    न्द्वभ ग के सञ्च लकों; न्द्वशेषकर क स्ारण दकय ह।ै भ रत ाें उनके इस शोध को सह यत और

    पर ाशय िने ेव ल ेकई गणा रय न्द्वद्व नों क स्ारण सम्प दिक के न्द्नश्छल क तयज्ञ को अन्द्भव्यक्त करत ह।ै

    ‘भून्द्ाक ’ खण्ड न्द्नम्नन्द्लन्द्खत ९ न्द्वरिओुं की सह यत से कुल १८ पृष्ठों ाें न्द्ववेच्य न्द्वषय क गम्भीर

    अध्ययन प्रस्तुत करत ह ै–

    1. Keshavadasa and the court of Orcha

    2. Literary fiction and Historical reality

    3. The Emperor Jahangir

    4. Jahangir’s religious tolerance

    5. Satirical allusions

    6. Historical and religious allegories in Jahamgira Jasa Candrika

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    7. Stylistic features

    8. Language

    9. Some interpretative proposals for the Jahangira Jasa Candrika

    चूँदक केशव के प्रस्तुत ग्ररथ क चठरतन यक ही ाुख्य प्रन्द्तप द्य ह ैअतः कन्द्व ने ‘िरब री कन्द्वत ’ और

    ‘प्रशन्द्स्त-क व्य’ के अनुकूल जह ँगीर क बहुत ही बढ़-चढकर वणयन दकय ह।ै हा ज नते हैं दक एतन्द्द्वषयक दकसी

    क व्य क कन्द्व कभी-कभी अन्द्तव िी वणयनों को भी प्रस्तुत कर िते ह,ै जो क ल रतर ाें दकसी स वध न प िक

    की नजरों ाें आ ही ज त ह।ै इससे क व्य नरि ाें तो कोई ब ध नहीं आती लेदकन ‘अन्द्तव दित ’ अपनी ओर

    खींच ज़रूर लेती ह।ै ऐसे ही एक अन्द्तव िी वणयन पर स्तेफेन्द्नय केल न्द्वरे को भी रुकन पड़ ह ै–

    गुन गन कौ आिरस सो काल न्द्ात्र कौं सूर।

    सरन गत कौं न्द्सरधु सो अघ को गांग पूर।।११६।।

    जह ँगीर को ‘गांग -जल’ बत ने सम्बरधी केशव की अन्द्तव िी िनृ्द्ि सम्प दिक ज़ च ।

    ने इ खूब पकड़ और न्द्हरिी-कन्द्वयों द्व र इस तरह के वणयनों के ाूल

    क रण य उद्गा को पहच न कर बेब क शब्िों ाें इसक िीकर सांस्कृत कन्द्व-साव य के न्द्सर पर ड ल दिय 5 –

    Most of the literary images follow Sanskrit patterns, with a widespread recourse

    to resemblances with Hindu gods, myths and stylistic conventions. From the religious

    perspective, he is compared to the purifying water of the Ganges, which is an unusual

    term of comparison for a Muslim sovereign.

    न्द्नःसरिहे यह परम्पर सांस्कृत-कन्द्वतई से प्रव न्द्हत हुई और साूचे भ रतीय स न्द्हत्य ाें घर कर गई।

    इस प्रक र न्द्ववेच्य न्द्वषयों पर उपलब्ध स ाग्री की बहुलत और न्द्वन्द्वधत पर बहुत ही सूक्ष्ा िनृ्द्ि

    रखत ेहुए ‘न्द्ातञ्च स रञ्च’ न्द्सद्ध रत के अनुकूल तथ्यों क प्रन्द्तप िन दकय गय ह ैन्द्जससे न्द्वज्ञ प िकों को न्द्वषय-

    प्रवेश ाें कोई कठिन ई नहीं होगी। ह ँयह ध्य न ाें रखन होग दक न्द्हरिी के स ा रय प िकों य न्द्वद्य र्तथयों

    तथ स ा रय अनुसन्द्रधत्सुओं के न्द्लए यह भून्द्ाक ा त्र ‘ा गयिशयन’ तक सीन्द्ात रहगेी ।

    5. Moonlight of the Emperor Jahangir’s Glory, Introduction, pp. 16-17.

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    CONSPECTUS SIGLORUM खण्ड ाें ‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ के सम्प िन हते ु प्रयुक्त १.

    प ण्डुन्द्लन्द्पयों, (MANUSCRIPTS CONSULTED FOR THE CRITICAL EDITION) २.प्रक न्द्शत सांस्करणों,

    (PRINTED EDITIONS CONSULTED FOR THE CRITICAL EDITION) ३. सांकेत क्षर एवां प्रयोग दकए

    स ङ्केन्द्तक प्रतीक ४. प्रयुक्त प ण्डुन्द्लन्द्पयों के न्द्लए इस सांस्करण ाें उपयोग दकए गए न्द्चह्न तथ ५. प्रयुक्त

    प्रक न्द्शत सांस्करणों ाें उपलब्ध प ि रतरों, अक्षरों तथ अरय वणय-न्द्वक रों को बत न े हते ु इस सांस्करण ाें

    उपयोग दकए गए न्द्चह्न परक इन ५ उपशीषयकों के द्व र प्रस्तुत सांस्करण की प्रकृन्द्त को साझ य गय ह,ै न्द्जस े

    ज न ेबगैर इस सांस्करण क उपयोग नहीं दकय ज सकत ।

    न्द्द्वतीय भ ग ग्ररथ क ‘आलोचन त्ाक सांस्करण’ ह ै न्द्जसाें ‘जह ँगीरजसचन्द्रिक ’ क आलोन्द्चत एवां

    साीन्द्क्षत प ि अरय प ि रतरों के स थ प्रक न्द्शत हुआ ह।ै हस्तन्द्लन्द्खत ग्ररथों क पिन और प्र ा न्द्णक प ि-

    न्द्नध यरण अत्यरत ्रा-स ध्य और िरुूह क यय ह।ै केल न्द्वरे ने भ रत और न्द्विशेों के ग्ररथ ग रों ाें सुरन्द्क्षत

    ‘जह ँगीरजसचन्द्रिक ’ ग्ररथ की हस्तन्द्लन्द्खत-प्रन्द्तयों क सन्द्वन्द्ध अध्ययन कर, स्वीकृत प ि के स थ एक-एक

    शब्ि क पठरवर्ततत प ि क्रा स ेप ि-ठटप्पणी ाें प्रस्तुत कर दिय ह।ै इसके अन्द्तठरक्त ्रीन्द्वश्वन थ प्रस ि न्द्ा्र,

    ल ल भगव न िीन और डॉ. दकशोरी ल ल द्व र सम्प दित व्य ख्य सन्द्हत प्रन्द्तयों को आध र ा न ह।ै

    सम्प दिक न े ‘इन्द्रिर ग ँधी र ष्ट्रीय कल केरि, नई दिल्ली’ ाें सुरन्द्क्षत सांवत ्१८२५ न्द्वक्राी (सन ्१७६८

    ईस्वी) की प्रन्द्त(यह प्रन्द्त भण्ड कर ओठरयण्टल इरस्टीट्यूट, पून ाें सांरन्द्क्षत प्रन्द्त क ा इक्रोदफल्ा के रूप ाें

    सांरन्द्क्षत प्रन्द्त ह)ै, ‘इांन्द्डय ऑदफस, लरिन, की प्रन्द्त; न्द्जसक न्द्लन्द्पक ल अज्ञ त ह,ै ‘र जस्थ न ओठरयण्टल ठरसचय

    इरस्टीट्यूट, न्द्सटी-पैलेस, उियपुर, की सांवत ्१७९६ (सन् १७३९ ईस्वी) की प्रन्द्त, ‘क शी-नरेश र ानगर, के

    सांग्रह की सांवत् १८४८ (सन् १७९१ ईस्वी) की प्रन्द्त क उपयोग इस ग्ररथ के सम्प िन ाें दकय ह,ै न्द्जनक

    न्द्ववरण ग्ररथ की भून्द्ाक -भ ग ाें प्रस्तुत दकय गय ह।ै

    यह ँ एक तथ्य स्ारणीय ह ैदक ्रीन्द्वश्वन थ प्रस ि न्द्ा्र तथ डॉ. न्द्वजयप ल ससह ने अपने-अपने ग्ररथों

    ाें ‘न गरीप्रच ठरणी सभ , क शी’ के ‘य न्द्ज्ञक-सांग्रह’ की एक प्रन्द्त की चच य की ह।ै ्रीन्द्ा्र न े इस प्रन्द्त क

    न्द्लन्द्पक ल सांवत ्१७९६ और डॉ. ससह ने १६९६ न्द्व. ा न ह।ै दकरत ुयह प्रन्द्त सभ के सांग्रह ाें नहीं ह ैऔर न

    तो न्द्ववरण त्ाक सूची ाें इसक न्द्ववरण न्द्ालत ह।ै सम्भव ह ैयह प्रन्द्त सभ से डॉ. ससह अध्ययन हते ुअपने घर

    ल ेगए हों। वे सभ के अन्द्धक री भी थे। दकसी प ण्डुन्द्लन्द्प को सम्प दित करत ेसाय सभ सम्प िकों के प स

    सम्बन्द्रधत प ण्डुन्द्लन्द्पयों को भेज दिय करती थी। ाुझे (उियशांकर िबु ेको) भी यह प्रन्द्त सभ ाें कभी िखेने को

    नहीं न्द्ाली। डॉ. दकशोरी ल ल जब ‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ की व्य ख्य न्द्लख रह ेथे, वे बहुध ‘न्द्हरिी-स न्द्हत्य

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    सम्ाेलन, प्रय ग, ाुझसे (उिय शांकर िबुे) न्द्ालने आय करते। एक दिन उरहोंने ाुझसे कह दक व्य ख्य के न्द्लए

    न्द्वश्वन थप्रस ि न्द्ा्र क प ि ले न्द्लय ह,ै क्य इस ग्ररथ की बुरिलेखण्ड ाें प्रन्द्तन्द्लन्द्प की गई कोई प्रन्द्त उपलब्ध

    हो सकती ह ै? तथ्य यह ह ैदक िशकों तक ाैंने ( ) बुरिलेखण्ड ाें प ण्डुन्द्लन्द्पयों की खोज क क यय

    दकय दकरतु दकसी भी सांग्रह ाें ‘जह ँगीरजसचन्द्रिक ’ की कोई प्रन्द्त ाुझ ेउपलब्ध नहीं हो सकी। व स्तव ाें

    बुरिलेखण्ड के लोग इस ग्ररथ को पढन पसरि नहीं करत े थे। सम्ाेलन’ ाें सांग्रह लय ाें सुरन्द्क्षत बीक नेर-

    र जस्थ न व ली प्रन्द्त क न्द्ववरण न्द्नम्नवत् ह ै-

    जह ँगीरश हीयशचन्द्रिक -१०-६/२२१४, ग्ररथक र - केशव र य न्द्ा्र, ग्ररथक ल - १६६९ सांवत्,

    न्द्लन्द्पक ल - १७१२ न्द्वक्राी (पौष, कृष्ण-७, शुक्रव र), भ ष - न्द्हरिी (ब्रज-पद्य), न्द्लन्द्प - न गरी, आध र -

    आधुन्द्नक पत्र, आक र - ३४-२०.८, पृष्ठ सांख्य - ३४, पांन्द्क्त प्रन्द्त पृष्ठ - २२, अक्षर प्रन्द्तपांन्द्क्त - १८, पठरा ण

    (अनुिुप्) - ४२०, िश - पूणय, प्र न्द्प्त-स्थ न - अभय जैन ग्ररथ ग र बीक नेर।’ (पृष्ठ - ४४३-४४, हस्तन्द्लन्द्खत

    न्द्हरिी ग्रांथों की न्द्ववरण त्ाक सूची, सांप िक - डॉ. र ाकुा र वा य, सन् १९७१ ईस्वी, न्द्हरिी स न्द्हत्य सम्ाेलन,

    प्रय ग)

    सुधी सम्प दिक स्तेफेन्द्नय को उपयुयक्त सम्ाेलन व ली प्रन्द्त की ज नक री नहीं हो सकी जबदक यह

    प्रन्द्त सम्प दिक द्व र न्द्ववेन्द्चत और प्रयुक्त सभी प्रन्द्तयों ाें सबसे अन्द्धक प्र चीन (सांवत् १७१२ न्द्वक्राी, सन ्

    १६५५ ईस्वी) प्रन्द्त ह।ै आश्चयय तो यह ह ैदक स्वयां डॉ. न्द्वजयप ल ससह ने भी इस प्रन्द्त क अवलोकन नहीं दकय

    जबदक वे सम्ाेलन के परीक्ष ारत्री थे। दकरत ुसुधी सम्प दिक न ेन्द्जतनी भी प्रन्द्तयों क उपयोग दकय ह ैवह

    अपने आप ाें ही ाहत्त्वपूणय हैं। सम्प दित ग्ररथ के पृष्ठ सांख्य ३७ से १७४ तक ‘जह ँगीर-जसचन्द्रिक ’ क

    आलोचन त्ाक प ि प्रस्तुत ह।ै कुल २०१ छरिों क प ि न्द्नन्द्श्चत करन े ाें ज्ञ त हस्तन्द्लन्द्खत और प्रक न्द्शत

    प्रन्द्तयों ाें जो प ि अथय-स पेक्ष थ उसी को रख गय ह।ै अरय प्रन्द्तयों ाें प्र प्त प ि को छरि के नीच ेसांख्य क्रा

    स ेि ेदिय गय ह।ै इसस ेप िकों को यह सुन्द्वध हो गई ह ैदक वह एका त्र इसी प्रन्द्त के आध र पर न्द्वन्द्भन्न

    प्रन्द्तयों ाें प्रस्तुत प िों को न्द्ववेन्द्चत कर सकत ह।ै यह ँ हा सम्प दिक द्व र ग्ररथ के ाूल प ि-व्यवस्थ पन और

    प ि रतर-प्रस्तुतीकरण परक न्द्वन्द्ध को बत ने के उद्दशे्य से एक उि हरण प्रस्तुत कर ितेे हैं -

    एक क ल बैिे हुत ेगांग जू के तीर।

    उिय भ ग िोऊ जने सुरिर धरे सरीर।।१२।।

    इससे स्पि ह ैदक सम्प दिक ने प ि-न्द्नध यरण की वैज्ञ न्द्नक पद्धन्द्त को अपन य ह।ै यही न्द्वध सभी छरिों ाें

    स्वीक र की गई ह।ै

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    तृतीय भ ग ‘जह ँगीरजसचन्द्रिक ’ क अांगे्रजी-अनुव ि सा न्द्हत करत ह।ै ाूल ग्ररथ क अांगे्रजी ाें यह

    गद्य नुव ि ह।ै अनुव ि स े पूवय आि पांन्द्क्तयों की एक सचून ह ै न्द्जसाें यह घोषण की गई ह ै दक न्द्हरि ूधाय,

    धायश स्त्र य पुर णश स्त्र की परम्पर ाें आने व ले प ठरभ न्द्षक पिों; यथ - कायन,् धायन् य िवेी-िवेत ओं य

    र ज ओं के न ा आदि के प्रस्तुतीकरण ाें सांस्कृत-न्द्नष्ठ शब्िों को स्थ न दिय गय ह।ै अनुव ि की भ ष ाें

    ध र व न्द्हकत ह ैऔर ाूल के भ वों की अन्द्भव्यन्द्क्त ाें कोई रुक वट नहीं होती। न्द्हरिी (ब्रज, अवधी और खड़ी

    बोली) के ‘टोन्’ और ‘ाूड्’ तथ भ रतीय-स न्द्हत्य; ख सकर रीन्द्त-युगीन वीर-क व्यों के वणयन-शैली के ‘ठरद्ा्’

    को अांगे्रजी-अनुव ि ाें ढँूढने क हि न करने व ले स ा रय अांगे्रजी-प िकों को यह अनुव ि लुभ एग , ाूल के

    न्द्लए पे्रठरत करेग इस ब त की ग रण्टी िी ज सकती ह।ै उि हरण के न्द्लए एक कन्द्वत्त क अनुव ि प्रस्तुत ह ै-

    भ ग्य -

    भून्द्ािवे नरिवे िवेिवे आदि कौन कौन कौन िीनो ि न ुऊँचो कठर करु ह ै

    कोठर न्द्वन्द्ध कठर कठर ाठर करत र कठर आवत न तैसो करतूतन्द्न को घरु ह।ै

    परिखु ि ठरिन्द्न कोऊ न सकत हठर केसोर य जिन्द्प जगतु हठर हरु हैं

    ज न्द्बन कन्द्व अभूत भूत स ेभँवत त न्द्ह र ज बीरवर ज ूको बेट धीरधरु ह।ै।८८।।

    Destiny –

    Is he the lord of earth, te lord of men, and the lord of gods or who? What kind of riches does he give (just he) by raising his hand? The creator resorted to thousands of means and was exhausted, but he could not manage to create someone else with such virtues. None other apart from that lord could remove sorrow and poverty of others’, even though (ultimately) it is the Lord that destroys the world – Keshvaraya says. He, without whom even great poets wander like mischievous sprites (having lost their inspiration), Is Dhiradharu, Raja Birbar’s son.

    अनुव ि ाें आए िवेी-िवेत , र ज-पुरुष, गणा रय व्यन्द्क्त, प्रतीक, प त्र, िशे तथ स्थ न आदि पर

    ऐन्द्तह न्द्सक तथ पुर त न्द्त्त्वक ाहत्त्व की ठटप्पन्द्णयों न े च र च ँि लग दिए हैं। यह ठटप्पन्द्णय ँ स्वयां ाें

    सम्प दिक के इन्द्तह स-ज्ञ न क प्रा ण प्रस्तुत करती हैं, वैसे इसाें उरहें पूवयवती प्रक न्द्शत सांस्करणों स ेभी

    सह यत प्र प्त हुई ह।ै

    चतुथय भ ग ाें पहल न्द्हस्स ह ै METRES IN JAHANGIRA JASA CANDRIKA शीषयक। इसके

    अरतगयत ‘जह ँगीरजसचन्द्रिक ’ के पद्यों ाें प्रयुक्त छरिों क न्द्वशे्लषण दकय गय ह।ै सुधी सम्प दिक न ेसाूचे

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    ग्ररथ ाें आए २०१ पद्यों ाें प्रयुक्त कुल छरिों की सांख्य १६ बत ई ह,ै जो इस प्रक र हैं - ा लती, कन्द्वत्त,

    रूपा ल , च ार, छप्पय, िोधक, िोह , न्द्नन्द्शप न्द्लक , नर च, भुजङ्गप्रय त, ा न्द्ल्लक , सा न्द्नक , सवैय ,

    सोरि , सा न्द्नक तथ चञ्चरी। छरिों की इस कुल सांख्य से न्द्वद्व नों को न्द्वप्रन्द्तपन्द्त्त हो सकती ह ैदकरतु ऐस े

    दकसी प्रन्द्तव ि स े पूवय उरहें दकसी एक ही पद्य ाें कई छरिों के लक्षण घठटत होन ेसम्बरधी और इसके क रण

    छरि-न्द्नध यरण ाें ात-वैन्द्वध्य सम्बरधी न्द्वव ि को सुलझ न पड़गे । १६ छरिों ाें भी ‘सा न्द्नक ’ छरि को िो

    ब र प्रस्तुत दकय गय ह,ै अथ यत ्उरहें िो ब र न्द्लख ा त्र गय ह।ै िोनों ही ‘सा न्द्नक ’ छरि को ‘उन्द्ष्णक्’ क

    न्द्वभ ग बत य गय ह ैऔर िोनों क ही एक लक्षण भी न्द्नध यठरत दकय गय ह।ै

    हा नहीं बत सकत ेदक यह भूल से िो ब र न्द्प्रण्ट हो गय ह ैअथव सम्प दिक क इससे कोई अरय

    आशय थ । क्योंदक प्रत्येक पद्य पर उपयुयक्त छरिों के लक्षण न तो घट कर यह सूची तैय र की गई ह,ै न ही यह

    बत य गय ह ैदक साूच े२०१ पद्यों ाें दकतन ेऔर कौन-कौन स ेपद्य दकसी एक छरि ाें हैं। वैसे यह क यय यदि

    कर दिय ज त तो ग्ररथ की उप ियेत तो बढती ही, प िकों को भी पद्यों ाें प्रयुक्त छरिों को पहच नन ेाें

    सुभीत हो ज त ।

    चौथ ेभ ग क अन्द्रता न्द्हस्स ह ैBIBLIOGRAPHY न्द्जसाें प्रस्तुत सांस्करण को तयै र करन ेाें न्द्जन

    उपजीव्य ग्ररथों की सह यत ली गई ह ैउनकी सूचन प्रस्तुत ह।ै इस सूची को िखेने से ही प िक सम्प दिक के

    अध्येत -वृन्द्त्त और सम्प िन-कौशल क अनुा न कर सकते हैं, प्रत्यक्ष तो उरहें ग्ररथ को पढने से ही होग ।

    कुल न्द्ाल कर ाह कन्द्व केशव ि स द्व र प्रणीत ‘जह ँगीरजसचन्द्रिक ’ क यह आलोचन त्ाक सांस्करण,

    प ि लोचन की िनृ्द्ि स ेन्द्हरिी-स न्द्हत्य को एक अाूल्य उपह र तो ह ैही; भ ष रतर ाें अनूदित न्द्हरिी-स न्द्हत्य के

    गौरव को भी एक बहुाूल्य उपह र ह।ै

    हा बत चुके हैं दक अब तक इस ग्ररथ क अांगे्रजी-अनुव ि हा री िनृ्द्ि ाें नहीं आय और हा इसे प्रथा

    अांगे्रजी-अनुव ि होन ेक ्ेरय ि ेसकत ेहैं। प्रस्तुत अांगे्रजी-अनुव ि स्वयां अांगे्रजी ाें अनूदित भ ष रतर-स न्द्हत्य

    अथ यत् अनूदित अांगे्रजी-स न्द्हत्य की ्रीवृन्द्द्ध ाें भी एक अहां योगि न प्रस्तुत करेग ; इस तथ्य पर हा आश्वस्त हैं।

    इस प्रक र स्तेफेन्द्नय ने प्रस्तुत सांस्करण के ा ध्या स ेन्द्हरिी तथ अांगे्रजी-भ ष और उनके स न्द्हत्य की जो सेव

    की ह,ै न्द्नश्चप्रचा् यह िोनों ही भ ष और स न्द्हत्य के इन्द्तह स ाें िजय होन ेयोग्य उल्लेखनीय तथ्य ह ैन्द्जस पर;

    आश ह ैइन्द्तह स ाौन नहीं रहगे । वैस ेयह सांस्करण हस्तन्द्लन्द्खत-ग्ररथों पर क यय करन ेव ल ेशोध र्तथयों और

    प ि लोचकों के न्द्लए पे्ररण ि यक और अत्यरत उपयोगी न्द्सद्ध होग ; इसाें कोई सरिहे नहीं।

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    कुछ आलोचन त्ाक तथ्य

    च ए च ए

    इ ज़ इ - ‘ ’ औ ‘ - ’ । -

    ‘ ’ । ासलन –

    १. भून्द्ाक ाें प्रस्तुत क व्येन्द्तह स-ग्ररथ के चठरत-न यक ‘जह ँगीर’ के जीवन पर बहुत ही सांक्षेप ाें

    (जरा, र ज्य न्द्धरोहण और र ज्य रोहण-क लीन कुछ घटन एां स्वयां जह ँगीरजसचन्द्रिक के आध र पर) कुछ

    ऐन्द्तह न्द्सक तथ्यों की चच य की गई ह।ै इस रूप ाें स्वयां इस क व्येन्द्तह स-ग्ररथ के ‘चठरत-न यक’ पर इतनी

    सांन्द्क्षप्त पठरचच य प िक को अचरज ाें ड ल सकती ह।ै यद्यन्द्प दक इस सांस्करण क ाूल उद्दशे्य

    ‘जह ँगीरजसचन्द्रिक ’ क प ि लोन्द्चत सम्प िन तथ उसक अांगे्रजी-अनुव ि प्रस्तुत करन ह,ै न दक जह ँगीर

    और तद्युगीन न्द्ववृत और न्द्वशे्लन्द्षत इन्द्तह स और उसके अध्य यों की पुनःप्रस्तुन्द्त तथ न्द्प न्द्जस ऐन्द्तह न्द्सक

    श सक के यशश्चन्द्रिक को स न्द्हत्य-पे्रन्द्ायों के साक्ष प्रसृत और स्यन्द्रित दकय ज रह हो उसके ऐन्द्तह न्द्सक

    जीवन और उसकी कन्द्तपय ऐन्द्तह न्द्सक घटन ओं क उल्लेख न करन , प्रकृत ाें बेतरह खटकत ह।ै अस्तु, इस

    सांस्करण के अपने ाौन्द्लक उद्दशे्यों के सा न रतर यह ‘अप्रस्तुन्द्त’ कोई न्द्वशेष ा यने नहीं रखती।

    एक और ब त जो इस सांस्करण ाें खटकती ह,ै वह इस प्रक र ह ै- ग्ररथ के अरत ाें प्रस्तुत ‘सरिभय-ग्ररथ-

    सूची’ के अवलोकन स ेयह स्पि ह ैदक इस सांस्करण की प्रस्तुन्द्त ाें ाुग़ल-क लीन इन्द्तह स पर प्रथा-स्तरीय शोध

    तथ सरिभय-ग्ररथों, उनके अांगे्रजी-अनुव िों की ही सह यत ली गई ह।ै दकरतु जह ँगीर के ऐन्द्तह न्द्सक जीवन को

    िश यने के क्रा ाें हा प ते हैं दक इन प्रथा-स्तरीय शोध-सरिभय-ग्ररथों से प्र प्त होन ेव ल ेतथ्यों की उपेक्ष कर उन

    तथ्यों को न्द्नणयय त्ाक रूप से प्रस्तुत दकय गय ह ैन्द्जन पर ाुग़ल-क लीन इन्द्तह स आज भी न्द्वच र कर ही रह

    ह।ै उि हरण-स्वरूप हा रे ‘चठरत-न यक’ जह ँगीर की ा त क न्द्नध यरण करत ेहुए इस सांस्करण ाें कह गय

    ह ै–

    …..The main subject of the panegyric is the story of prince salim, the eldest son of

    the Mughal Emperor Akbar (1542-1605) who succeeded to his father’s throne. His mother

    was the Rajput princess Jodha Bai, daughter of the defeated Raja of Amber Bihari Mala.6

    दकरतु जह ँगीर के जरा के सरिभय ाें उपलब्ध प्रथा तथ न्द्द्वतीय-स्तरीय सास्त पर्तसयन, अांगे्रजी तथ

    न्द्हरिी के शोध-सरिभय ग्ररथों ाें इस तथ्य क कहीं कोई उल्लेख नहीं ह ै दक अकबर की न्द्जस पत्नी ाें सलीा

    6. Moonlight of the Emperor Jahangir’s Glory Introduction, page-14.

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    (जह ँगीर) क जरा हुआ हुआ वह ‘आाेर’ के र ज ‘न्द्बह री ाल’ की पुत्री थी। ाुग़ल-क लीन इन्द्तह स इस तथ्य

    की पुन्द्ि तो करत ह ैदक ‘आाेर’ के र ज ‘न्द्बह री ाल’ की पुत्री क न्द्वव ह अकबर के स थ हुआ, दकरतु इस

    तथ्य की पुन्द्ि नहीं करत दक उपयुयक्त र ज की पुत्री क न ा जोध य जोधब ई थ ।

    “ औ ” (

    ) इ , और दकतन े ही ऐस े

    ऐन्द्तह न्द्सक सरिभों से स ान हुआ जो इस तथ्य क न्द्वरोध करत े हैं दक सलीा, अकबर द्व र जोध य

    जोध ब ई से उत्पन्न हुआ।7 इन सभी ऐन्द्तह न्द्सक सरिभों को तो हा यह ां प्रस्तुत नहीं कर सकते; ह ां इस न्द्वषय

    के अन्द्धक री न्द्वद्व न् बनेी प्रस ि जी की एक ठटप्पणी को प्रस्तुत कर ितेे हैं -

    No chronicler mentions the Rajput name of Jahangir’s mother. Surjan Rai (Khulasat

    ut Tawarikh, Delhi, edition, 1918, p.-374) alone mentions the official desiganation. Abul

    Fazl (Beveridge 2, 503) refers only to “the matrix of the sun of fortune”, Ferishta (Briggs 2,

    233) to “the favourite Sultana”, Nizamuddin (E. and D. vol.-5, 533) and Badauni (Lowe, vol.-

    2, 112) to “one of the Emperor’s wives. Blochmann (p.-310) at first supposed her to be Jodh

    Bai, but later (p.-619) corrected himself.

    Beveridge (J.A.S.B. 1887, vol.-1, pp. 164-167) once argued that she was Sultana

    Begam, the widow of Bairam Khan, but the position is untenable. Knee (Hand Book Guide to Agra, p.-58). G. W. Forest (Cities of India – Past and Present, p.-195) bristles with gross mistakes of fact and date. See also: the District Gazetteer of Agra, pp.-147-148.8

    यह ां इस सरिभय ाें ध्य न रखने योग्य तथ्य यह भी ह ैदक उपयुयक्त साक लीन इन्द्तह स-ग्ररथों के अल व ख फी

    ख न, बख्त वर ख न आदि परवती पर्तसयन-इन्द्तह सक रों न े इस सरिभय ाें कोई सूचन नहीं िी ह।ै

    Journal of Indian History, vol.-XLII, 1964, parts: 124-126, pp.: 931-933 पर प्रक न्द्शत

    एक शोध के अनसु र ‘जोध ’ य ‘जोध ब ई’ आाेर के र ज न्द्बह रीाल कछव ह की पुत्री न होकर ‘ाोट र ज

    उिय ससह’ की पत्नी ‘ानरांग ि’े के गभय से १९७२ ई. ाें उत्पन्न हुई थी और १५८७ ई. ाें इसक न्द्वव ह स्वयां

    जह ांगीर स ेहुआ थ । यह ख़ुरया की ा ां थी और जह ांगीर इसे ही ‘जगतगुस ांई’ कह कर सम्बोन्द्धत करत ह।ै

    साक लीन ऐन्द्तह न्द्सक सरिभों के आलोक ाें न्द्ववृत उपयुयक्त स क्ष्य को अगचे स्वीक र कर न्द्लय ज ए

    तो तथ्य यह ह ैदक अकबर के स थ जोध क न्द्वव ह कभी हुआ ही नहीं, अलबत्त: जोध क न्द्वव ह जह ांगीर के

    स थ हुआ थ । अकबर और जोध के न्द्वव ह सम्बरधी प्रव ि क इन्द्तह स सम्भवत: Cunningham; जो दक

    Geographical Survey of India के Director थे; -से प्र रम्भ होत ह ैजब उरहोंन े ‘फ़तहपुर सीकरी’ न्द्स्थत

    7. ए ए - औ , ( -१), -९१.

    8. History of Jahangir, by Dr. Beni Prasad, 1940, page-5.

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    एक ाहल क न ा ‘जोध क ाहल’ (Jodha’s Palace) के रूप ाें स्थ न्द्पत दकय । इसे एन्द्तह न्द्सक न्द्वडम्बन

    ही ा नन च न्द्हए दक कसनघा न ेइस ाहल की त’आाीर की तव रीख़ तो १५७० ई. के रूप ाें न्द्नध यठरत कर

    िी ागर जोध के इन्द्तह स को ाुक़म्ाल न कर सके।9 हा अभी अभी कह आए हैं दक ाोट र ज उियससह की

    पुत्री जोध क जरा १५७२ ई. ाें हुआ थ , अथ यत् अकबर द्व र उपयुयक्त ाहल बन ने से िो वषय ब ि।

    2. ाुग़ल-क लीन इन्द्तह स के प्रथा-स्तरीय शोध एवां सरिभों स ेप्र प्त ऐन्द्तह न्द्सक तथ्यों की अनिखेी

    क एक और उि हरण अबुल फज़्ल की हत्य की सूचन के प्रसांग ाें भी उपलब्ध होत ह।ै प्रक न्द्शत सांस्करण की

    भून्द्ाक , पृष्ठ 12-13 पर ओरछ -र ज्य क ाुग़ल-स म्र ज्य के स थ प रस्पठरक सम्बरधों के क्रन्द्ाक िढृीकरण और

    इन सम्बरधों के ाध्य केशवि स की स न्द्हन्द्त्यक सेव क न्द्ववरण प्रस्तुत दकय गय ह।ै इस क्रा ाें पृष्ठ-13 पर

    ओरछ और ाुग़लों के तीसरे स्तर क सम्बरध वीरससहिवे और जह ँगीर के रूप ाें स्थ न्द्पत दकय गय ह।ै

    वीरससहिवे और जह ँगीर क यह प रस्पठरक सम्बरध न्द्जस आध र-भून्द्ा पर िढृ हुआ थ वह ह ैअबुल फज़्ल की

    हत्य ाें वीरससहिवे की ाुख्य भून्द्ाक । अबुल फज़्ल की हत्य के सरिभय ाें सम्प दिक न ेअपने कथ्य की पुन्द्ि ाें

    जो स क्ष्य दिय ह,ै वह स क्ष्य अबुल फज़्ल की हत्य क स्थ न एवां क रण न्द्बलकुल असम्बद्ध रूप ाें प्रस्तुत

    करत ह ै–

    Abul Fazl was the personal counsellor of Akbar. Jahangir considered him responsible for Akbar’s predilection for Khusrau as his successor to the throne; therefore, he arranged for murdering him during his pilgrimage to Mecca. See, for example, Bunr 1963 : 149 and Richard 1993 :95.

    दकरतु यह उपलब्ध इन्द्तह स के न्द्वरुद्ध तथ्य ह।ै अबुल फ़ज़्ल की हत्य उस साय की गई थी जब अकबर न े

    स म्र ज्य क उत्तर न्द्धक री सम्बरधी न्द्वव ि को सुलझ ने हतेु िन्द्क्षण से उसे व पस बुल य थ और वह आगर

    व न्द्पस आ रह ेथ।े10

    आवश्यक न्द्वरिओुं पर ठटप्पणी न करन ेक एक उि हरण उपयुयक्त पद्य (न्द्जसक अांगे्रजी अनुव ि हान े

    पीछे प्रस्तुत दकय ह)ै ाें भी िखे ज सकत ह ै- उस पद्य ाें सम्प दिक न ेकन्द्वत्त के प्रन्द्तप द्य ‘बीरवर जू को

    बेट धीरधरु ह’ै ाें आए ‘बीरवर’ पर तो ठटप्पणी कर िी ह,ै दकरतु ाुख्य प्रन्द्तप द्य बीरवर के पुत्र ‘धीरधरु’ पर

    कोई ठटप्पणी नहीं िी। उसक न ा ध रु थ । बीरवर क यह पुत्र; कुछ ही साय के न्द्लए सही, लेदकन इन्द्तह स

    ाें अपनी उपन्द्स्थन्द्त िजय करत ह,ै उसकी चच य स ा रय इन्द्तह स के न्द्वद्व न् य न्द्वद्य थी नहीं करत ेदकरत ुकेशव

    जैस ेआच यय ने न्द्जस व्यन्द्क्त को ाहत्त्व िकेर एक साूच कन्द्वत्त उसे सार्तपत दकय उस ाुख्य प्रन्द्तप द्य पर कोई

    ठटप्पणी न िने यह ँखलत ह।ै

    9. ए ए - औ , ( -१), -९१. 10. ए ए – History of Jahangir, pp. 44-45.

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    इ ज़ ‘ च ’ - इ ए

    ए औ । औ ‘ -

    च ’

    औ इ ए औ

    ‘ च ’ इ औ

    सरिभय-ग्ररथ-सचूी

    1. Cavaliere, Stefania, (Editor and Translator), Moonlight of Emperor Jahangir’s Glory,

    First Edition 2010 A.D., Dipartimento Di Studi Asiatici, Series Minor LXIII, Universita

    Degli Studi Di Napoli “L’Orientale, Napoli, Roma,

    2. Prasad, Beni, History of Jahangir, First Edition 1940 A. D., The Indian Press Limited,

    Allahabad, U.P.

    3. , ( ), , ( ), , 1978 ई.,

    , इ .

    4. न्द्ा्र, प्रत प कुा र, अकबर और सांस्कृत (भ ग-1), प्रथा सांस्करण 2012 ई., अन्द्खल

    भ रतीय ाुन्द्स्ला-सांस्कृत सांरक्षण एवां प्र च्य शोध सांस्थ न, व र णसी, उ.प्र.

    5. रुिकन्द्व (लेखक), न्द्ा्र, प्रत प कुा र (अनुव िक एवां सम्प िक), च , प्रथा

    सांस्करण 2007 ई., अन्द्खल भ रतीय ाुन्द्स्ला-सांस्कृत सांरक्षण एवां प्र च्य शोध सांस्थ न, व र णसी, उ.प्र.

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